गोरखपुर : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वांचल के गौरवशाली अतीत पर जब-जब बात होती है, तो उसमें सबसे पहला जिक्र चौरीचौरा कांड का होता है। पुलिस फायरिंग में अपने तीन साथियों की मौत से गुस्साई भीड़ ने 4 और 5 फरवरी 1922 की दरम्यानी रात गोरखपुर के चौरीचौरा थाने में आग लगा दी थी। इसमें 23 पुलिस वालों की मौत हो गई थी। वहीं 19 लोगों को फांसी और 14 को उम्रकैद की सजा दी गई थी। इसी घटना के चलते महात्मा गांधी को अपना असहयोग आंदोलन तक वापस लेना पड़ा था। आइए इस घटना की 103वीं बरसी पर जानते हैं, इससे जुडे़ कुछ रोचक तथ्य….
चौरीचौरा कांड के पीछे की वजह
महात्मा गांधी ने 4 सितंबर 1920 को कांग्रेस के बैनर तले देशव्यापी असहयोग आंदोलन का आह्वान किया। उनके इस आह्वान पर लाखों की संख्या में लोग अंग्रेजी शासन के खिलाफ शांतिपूर्वक प्रदर्शन एवं विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करने लगे। इसका असर यह हुआ कि साल 1922 आते-आते अंग्रेजी सत्ता को इससे व्यापक खतरा महसूस होने लगा, जिसके चलते अंग्रेज इसके दमन में जुट गए। 4 फरवरी 1922 को प्रर्दशनकारियों को इस बात की सूचना मिली कि चौरीचौरा पुलिस स्टेशन के थानेदार ने मुंडेरा बाजार में कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं को मारा है। इससे गुस्साई भीड़ पुलिस स्टेशन के बाहर जमा हो गई।

यह भी कहा जाता है कि घटना से दो दिन पहले यानी 2 फरवरी 1922 को, भगवान अहीर नामक ब्रिटिश-भारतीय सेना के एक सेवानिवृत्त सैनिक के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाले स्वयंसेवकों ने गौरी बाजार में उच्च खाद्य कीमतों और शराब की बिक्री का विरोध किया। इन प्रदर्शनकारियों को स्थानीय दारोगा (इंस्पेक्टर) गुप्तेश्वर सिंह और अन्य पुलिस अधिकारियों ने पीटा और कई नेताओं को गिरफ्तार कर चौरीचौरा थाने के हवालात में डाल दिया गया। इसी के जवाब में 4 फरवरी को चौरीचौरा बाजार में पुलिस के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया गया था।
2500 से अधिक प्रदर्शनकारियों ने घेर लिया था थाना
4 फरवरी को लगभग 2,500 की संख्या में प्रदर्शनकारी जुटे हुए और चौरीचौरा के बाजार लेन की ओर मार्च करना शुरू कर दिया। स्थिति को नियंत्रित करने के लिए सशस्त्र पुलिस भेजी गई, जबकि प्रदर्शनकारियों ने ब्रिटिश विरोधी नारे लगाते हुए बाजार की ओर मार्च किया। भीड़ को डराने और तितर-बितर करने के प्रयास में, गुप्तेश्वर सिंह ने अपने 15 स्थानीय पुलिस अधिकारियों को चेतावनी देने के लिए हवा में गोलियां चलाने का आदेश दे दिया। इससे भीड़ भड़क उठी और पुलिस पर पथराव शुरू कर दिया। भीड़ से छिपकर पुलिसकर्मी थाने के भीतर छिप गए। पुलिसकर्मियों को बाहर नहीं निकलते देख भीड़ ने थाने में आग लगा दी। कुल 23 पुलिसकर्मी थाने के भीतर ही जिंदा जल गए।

चौरीचौरा कांड की वजह से ही गांधी ने वापस ले लिया था असहयोग आंदोलन
इसी हिंसा के बाद महात्मा गांधी ने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन वापल ले लिया था। महात्मा गांधी के इस फैसले को लेकर क्रांतिकारियों का एक दल नाराज हो गया था। 16 फरवरी 1922 को गांधीजी ने अपने लेख ‘चौरी चौरा का अपराध’ में लिखा था कि अगर ये आंदोलन वापस नहीं लिया जाता तो दूसरी जगहों पर भी ऐसी घटनाएं होतीं। उन्होंने इस घटना के लिए एक तरफ, जहां पुलिस वालों को जिम्मेदार ठहराया था कि क्योंकि उनके उकसाने पर ही भीड़ ने ऐसा कदम उठाया था। वहीं दूसरी तरफ, घटना में शामिल तमाम लोगों को अपने आपको पुलिस के हवाले करने को कहा था, क्योंकि उन्होंने अपराध किया था।
चौरीचौरा शहीद स्मारक
चौरीचौरा कांड के गौरवशाली इतिहास को संजोने के लिए 1971 में गोरखपुर जिले के लोगों ने चौरीचौरा शहीद स्मारक समिति गठित की। इस समिति ने 1973 में चौरीचौरा में 12.2 मीटर ऊंची एक मीनार बनाई। इसके दोनों तरफ एक शहीद को फांसी से लटकते हुए दिखाया गया था। इसे लोगों के चंदे के पैसे से बनाया गया। इसकी लागत तब 13,500 रुपये आई थी।

बाद में भारत सरकार ने शहीदों की याद में एक अलग शहीद स्मारक बनवाया। इसे ही हम आज मुख्य शहीद स्मारक के तौर पर जानते हैं। इस पर शहीदों के नाम खुदवा कर दर्ज किए गए हैं। भारतीय रेलवे चौरी-चौरा के शहीदों के नाम से दो ट्रेन भी चलाती है, जिनके नाम शहीद एक्सप्रेस और चौरी-चौरा एक्सप्रेस हैं।

चौरीचौरा थाने का इतिहास
दरअसल, चौरी-चौरा दो अलग-अलग गांवों के नाम थे। रेलवे के एक ट्रैफिक मैनेजर ने इन गांवों का नाम एक साथ किया था। उन्होंने जनवरी 1885 में एक रेलवे स्टेशन की स्थापना की थी।इसलिए शुरुआत में सिर्फ रेलवे प्लेटफॉर्म और मालगोदाम का नाम ही चौरी-चौरा था। बाद में चौरा गांव में बाजार लगना शुरू हुआ। जिस थाने को 4 फरवरी 1922 को जलाया गया था, वो भी चौरा में ही था। इस थाने की स्थापना 1857 की क्रांति के बाद हुई थी। यह एक तीसरे दर्जे का थाना था।
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