आधुनिक दौर के एक सबसे भयावह शब्द को चुनना हो तो वह शब्द विकास होगा। विकास की पूरी अवधारणा और परिकल्पना इस ढंग से विकसित की गयी है कि उसकी भयावहता का हम ठीक-ठीक अनुमान कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि यह पूरी दुनिया इस कदर मनुष्य केंद्रित है कि अन्य जीवों की दृष्टि से हम इस पृथ्वी के बारे में सोच ही नहीं पाते हैं।
सभ्यता के विकास के जिस पायदान पर हम खड़े हैं, उसमें धरती के तमाम संसाधन मनुष्य मात्र के लिए है। बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि धरती के तमाम मनुष्यों के लिए नहीं बल्कि शक्तिशाली मनुष्यों के लिए वह संसाधन हैं। विकास की पूरी अवधारणा के मूल में दुनिया के शक्तिशाली मनुष्य हैं। जब कमजोर मनुष्यों के लिए विकास समान रुप से हितकारी नहीं है तो उसमें पशु-पक्षी की चिंता शामिल हो इसका तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। इस पूरे प्रसंग को इस सवाल के दायरे में रख कर देखने से शायद ज्यादा बेहतर परिप्रेक्ष्य निर्मित हो सके कि पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों पर क्या केवल मनुष्यों का हक है? या अन्य जीवों का भी कुछ हक है?
विकास की अंधी और अनवरत दौड़ में जिस ढंग से प्राकृतिक संसाधनों की बलि ली जा रही है, वह खासा चिंताजनक है। पक्षियों की उजड़ती और तबाह होती दुनिया के उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है। यह मामला केवल पक्षियों का नहीं है बल्कि बदलती पारिस्थितिकी का है। इस बदलती पारिस्थितिकी के साथ जो जीव या वनस्पति अपना सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे हैं, उनका अस्तित्व खतरे में है। प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट होने का सीधा असर उस भू-भाग की जैव विविधता पर पड़ रहा है। देश के किसी भूभाग का अंग्रेजी राज के वक्त का गजेटियर उठा कर आप देखें तो हैरत में पड़ जायेंगे कि उन भूभागों में कैसे-कैसे जीव और पशु-पक्षी मौजूद थे।
पचहत्तर-अस्सी साल के भीतर वह किसी बहुत पुराने वक्त की बात प्रतीत होने लगी है। वक्त में उतने पीछे ना जायें तो एक छोटे से हिस्से की दो साल की केस स्टडी आपके सामने रख रहा हूँ, जिससे इस संकट का आप कुछ-कुछ अनुमान कर सकें।
देवघर संताल परगना का अकेला शहर है। राँची को छोड़ दें तो संभवतः विकास की ऐसी गति पूरे झारखंड में कहीं नहीं देखी गई है। सभ्यता के जिस दौर में हम दाखिल हो चुके हैं, उसमें शहरीकरण और विकास लगभग पर्यायवाची हो चले हैं।
इन दोनों से बचकर चल पाना किसी सूबे के लिए संभव नहीं रह गया है। शहरीकरण अपने साथ रोजगार के साथ-साथ सहूलियतों का पूरा पैकेज लेकर आता है, जिसकी अनदेखी सरकार और जनता दोनों के लिए अब तकरीबन असंभव-सा हो गया है। इसकी जो परिणतियाँ हैं वह मनुष्यों के हक में तो है पर अन्य पशु-पक्षियों के लिए यह संकट का सबब हो गया है। हम अपनी बात को पक्षियों के दायरे में रख कर आगे बढ़ा रहे हैं। पक्षियों की दुनिया में वैसी जगहों को ‘हॉट स्पॉट’ कहा जाता है, जहाँ पक्षियों की विविधता या उपस्थिति लगातार बनी रहती है।
पक्षी केवल वृक्ष पर नहीं रहते उनके आवासन में मैदान, कछार, पथरीली जमीन, रेतीली जमीन, पोखर, आहर, झाड़ी, घास, दलदली इलाके सब शामिल हैं। कुछ को निर्जन पसंद है तो कुछ को बस्तियों के आस-पास रहना। जंगल खत्म हो रहे हैं, नदियाँ या तो सूख रही हैं या नालों में तब्दील हो रही हैं। निर्जन और परती पड़ी जमीनें सरकार विकास के कामों में ला रही हैं। पोखर सौंदर्यीकरण के शिकार हो रहे हैं। हर तरफ से पक्षियों का आवासन (हैबिटेट) खतरे में है। केवल देवघर की बात करें तो सर्दी के प्रवासी पक्षियों का सबसे लोकप्रिय और प्रसिद्ध साईट नोखिल रोजमर्रे की गतिविधियों के चपेट में आने के कारण लगभग तबाही की कगार पर है।
इंडियन थीक नी जिसे स्टोन कर्ल्यू के नाम से जाना जाता है, देवघर के कुमैठा वाले इलाके में केवल देखा और पाया जाता था, अब वह भी सरकारी निर्माण की चपेट में है। बाबा वैद्यनाथ मंदिर से बमुश्किल डेढ़-दो सौ मीटर की दूरी पर स्थित जलसार का इलाका जहाँ तीस-पैंतीस किस्म के पक्षी हर वक्त मौजूद रहते थे, पिछले साल ही सौंदर्यीकरण की भेंट चढ़ गया। बगुलों की एक प्रजाति होती है, जिसे ‘बिटर्न’ कहते हैं। उसमें कम से कम ब्लैक बिटर्न और येलो बिटर्न वहीं सहजता से उपलब्ध थे, जो अब कहीं-नहीं दिखते। बेंगी बिशुनपुर एक गांव है जहाँ पक्षियों की ऐसी विविधता मौजूद थी कि उसे एक छोटे ‘वेटलैंड’ के तौर पर कन्जर्व किया जाना था। सर्दियों में प्रवासी पक्षियों का वहाँ मेला लगा रहता है। साल भर में वहाँ एक सौ से ज्यादा किस्म के पक्षियों का रिकार्ड है। पक्षियों की एक श्रेणी होती है ‘वेडर्स’ की।
यह साईट झारखंड का अकेला साईट था, जहाँ वेडर्स अपनी पूरी विविधिता में एक साथ सर्दियों में मौजूद रहते थे। अब मत्स्य विभाग उसमें मछली पालन की तैयारी कर रहा है। यह आहर उन्हें जलसार के अपने मत्स्य पालन वाले पोखरों के एवज में मिला है। अगले साल तक देवघर का सबसे समृद्ध साईट शर्तिया बर्बाद हो चुका होगा। जमीन की बढ़ती कीमतों ने बसाहट के लिए ग्रीन लैंड को अपनी जद में लेना शुरु किया है, शहर के सीमांतों पर मौजूद पक्षियों की विविधता अब उससे भी नष्ट हो रही है।
धारावार नदी जिसे डढ़वा नदी के नाम से यहाँ जाना जाता है उसके तट पर बसा एक ऐसा ही क्षेत्र है सिंघवा, पिछले दो साल में वह पूरा बर्बाद हो गया। सवाल है कि आखिर विकल्प क्या है? वन विभाग की मुसीबत यह है कि जो जंगल उनके अधिकार क्षेत्र में है वहाँ तो वे कारगर हैं, लेकिन पक्षी केवल जंगलों तक सीमित नहीं हैं। बल्कि जंगलों की तुलना में उनकी विविधता ऐसे खास इकोलॉजी वाले पोखरों के पास ज्यादा है। इन पोखरों पर वन विभाग का कोई अख्त्यिर नहीं है। पर्यटन विभाग लोगों को आकर्षित करने के लिए सौंदर्यीकरण पर बल देता है।
सौंदर्यीकरण अपने आप में एक पक्षी विरोधी कृत्य है। सौंदर्यीकरण पक्षियों को ध्यान में ना रख कर मनुष्यों की सुविधा को ध्यान में रख कर किया जाता है। दरअसल जरुरत है सरकार के स्तर पर पक्षियों के ऐसे ‘हॉटस्पॉट’ को चिह्नित कर उसे संरक्षित करने की अन्यथा दस साल के भीतर यह यकीन दिलाना मुश्किल होगा कि हमारे आस-पास पक्षियों का इतना खूबसूरत संसार मौजूद था।
राहुल सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर, विश्व भारती, शांतिनिकेतन
READ ALSO : टोंस: भुब्रुवाहन के आंसुओं से बनी एक नदी