रांची : बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती शुक्रवार को पूरे देश में मनाई जा रही है। झारखंड के महान जननायक और आदिवासी समाज के नेता बिरसा मुंडा को उनके योगदान और संघर्ष के लिए भगवान की तरह पूजा जाता है। इस दिन को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।
बिरसा मुंडा न सिर्फ झारखंड, बल्कि पूरे देश के इतिहास में एक आदर्श और प्रेरणा के रूप में सदैव जीवित रहेंगे। उनके द्वारा उठाए गए कदम और संघर्ष आज भी आदिवासी समाज के लिए प्रेरणास्रोत हैं। उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता और आज भी झारखंड और आसपास के कई राज्यों में उन्हें भगवान के रूप में पूजा जाता है।
बिरसा मुंडा का जन्म और शुरुआती जीवन
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को खूंटी जिले के उलीहातु गांव में हुआ था, जो उस समय रांची जिले का हिस्सा था। उनका जन्म एक आदिवासी परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सुगना मुंडा और मां का नाम करमी मुंडा था। बिरसा की प्रारंभिक शिक्षा चाईबासा स्थित एक मिशनरी स्कूल में हुई, जहां उन्होंने अपनी शिक्षा की शुरुआत की। इस दौरान उन्होंने देखा कि कैसे अंग्रेज भारतीयों, खासकर आदिवासियों पर जुल्म ढा रहे थे और ये दृश्य उन्हें भीतर से आंदोलित करने लगे। यहां स्कूल में उनका नाम भी बदल दिया गया था, जिससे वे काफी दुखी हुए। अंत में उन्होंने बीच में ही पढ़ाई छोड़ कर अपने गांव लौट गए।
अंग्रेजों के खिलाफ उनका संघर्ष 1894 में उस समय शुरू हुआ जब छोटानागपुर इलाके में अकाल और महामारी का प्रकोप फैला। इस दौरान बिरसा ने लोगों की मदद की और उन्हें जागरूक किया, जिससे उन्होंने स्थानीय लोगों का विश्वास जीता और एक मजबूत नेतृत्व के रूप में उभर कर सामने आए।
शुरुआती जीवन और शिक्षा
बिरसा का बाल्यकाल आदिवासी संस्कृति के बीच बीता, लेकिन उनकी प्रारंभिक शिक्षा चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल में हुई, जहां उन्हें आधुनिक शिक्षा का थोड़ा-बहुत ज्ञान हुआ। यह वही समय था जब बिरसा में एक क्रांतिकारी सोच का विकास हो रहा था। स्कूल में अध्ययन के दौरान ही उन्होंने अंग्रेजों द्वारा आदिवासियों पर किए जा रहे अत्याचारों और जनजातीय समाज के खिलाफ हो रहे अन्याय को महसूस किया। यही वह समय था जब उन्होंने ठान लिया कि वह अपने समाज के लिए कुछ बड़ा करेंगे।
बिरसा मुंडा का संघर्ष और आंदोलन
1894 में जब अंग्रेजों ने झारखंड और आसपास के आदिवासी इलाकों में अपनी पकड़ मजबूत करना शुरू किया, तो बिरसा मुंडा ने उनके खिलाफ खुलकर आवाज उठाई। उन्होंने लगान वसूली, महाजनी प्रथा और अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत की। अंग्रेजों ने उनकी बढ़ती लोकप्रियता से घबराकर उन्हें 1895 में गिरफ्तार कर लिया और हजारीबाग जेल भेज दिया। यहां वह करीब दो साल तक बंद रहे, लेकिन उनका आंदोलन कमजोर नहीं पड़ा।
बिरसा मुंडा ने 1897 में मुंडा आंदोलन की शुरुआत की, जो 1900 तक चलता रहा। उनके नेतृत्व में आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ कई युद्ध लड़े, जैसे कि 1897 में खूंटी में अंग्रेजों से भिड़ंत और 1898 में तांगा नदी के किनारे युद्ध। इन संघर्षों में कई अंग्रेज सैनिक मारे गए और मुंडा समुदाय ने अपनी ताकत दिखाई।
खूंटी में बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच युद्ध
1897 में बिरसा मुंडा और उनके साथियों ने खूंटी पुलिस थाने पर हमला किया और अंग्रेजी सरकार के खिलाफ खुला संघर्ष किया। इस संघर्ष ने ब्रिटिश अधिकारियों को हिला दिया। इसके बाद 1898 में तांगा नदी के किनारे और फिर 1900 में डोमबाड़ी पहाड़ी पर भी भीषण युद्ध हुआ, जिसमें कई आदिवासी शहीद हो गए।
बिरसा मुंडा ने इन संघर्षों में न केवल अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला, बल्कि आदिवासी समाज को एकजुट कर उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाई। वह केवल एक सैन्य नेता नहीं, बल्कि समाज सुधारक भी थे, जिन्होंने अपने समाज में सुधार की नींव रखी।
बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी और मृत्यु
बिरसा मुंडा की लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि अंग्रेज सरकार घबराने लगी और उन्होंने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। फरवरी 1900 में उन्हें चक्रधरपुर से गिरफ्तार कर रांची जेल भेजा गया। वहां 9 जून 1900 को उन्होंने अंतिम सांस ली। ब्रिटिश सरकार ने उनकी मौत को हैजा के कारण बतलाया, लेकिन कई लोग आज भी मानते हैं कि उनकी मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी। उनकी मौत के बाद भी उनका आंदोलन जीवित रहा और उनके योगदान को आज भी याद किया जाता है।
बिरसा मुंडा का धार्मिक और सामाजिक योगदान
बिरसा मुंडा न केवल एक स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि वह एक समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अपने समुदाय को अंधविश्वास, नशे और अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूक किया। उनका प्रमुख संदेश था कि जीव हत्या, बलि देना और शराब का सेवन गलत है। वह आदिवासियों को संगठित होने और अपनी एकता को बनाए रखने के लिए प्रेरित करते थे। उनके विचारों ने आदिवासी समाज में सकारात्मक बदलाव लाया और उनके अनुयायी आज भी उनके बताए मार्ग पर चल रहे हैं।
बिरसा मुंडा की पूजा और श्रद्धांजलि
बिरसा मुंडा का जीवन आज भी आदिवासी समाज में एक प्रतीक के रूप में जिंदा है। उन्हें ‘धरती आबा’ (पृथ्वी का पिता) कहा जाता है और उनकी पूजा भगवान की तरह की जाती है। रांची के कोकर में स्थित बिरसा मुंडा की समाधि पर हर साल हजारों लोग श्रद्धांजलि अर्पित करने आते हैं। इसके अलावा झारखंड के साथ-साथ बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, असम आदि के आदिवासी इलाकों में भी उन्हें पूजा जाता है।
बिरसा मुंडा का आदिवासी समाज में जो योगदान रहा, वह न केवल उनके समय में बल्कि आज भी आदिवासी अधिकारों और समाज के उत्थान के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनके संघर्षों और विचारों के कारण ही उन्हें भगवान के रूप में पूजा जाता है और उनकी जयंती पर उन्हें पूरे देश में श्रद्धांजलि दी जाती है।
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