रांची : झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए ) की हार पर चौतरफा राजनीतिक बहस छिड़ी है। अलग-अलग राजनीतिक विशेषज्ञ हार के अलग-अलग कारण बता रहे हैं। इसमें सबसे बड़ा फैक्टर कुर्मी या कुड़मी वोट बैंक के बिखराव को माना जा रहा है। दावा किया जा रहा है कि भाजपा के रणनीतिकार जमीनी हकीकत पहचानने में असफल रहे। अगर पार्टी ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन(आजसू पार्टी) सुप्रीमो सुदेश महतो के साथ जयराम महतो की पार्टी झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा (जेएलकेएम) को जोड़ने में सफन हो जाती, तो परिणाम अलग होते। झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार बैजनाथ मिश्रा की मानें तो “इस चुनाव में भाजपा ने बहुत सारी गलतियां कीं। इसमें से एक गलती यह रही कि पार्टी महतो जाति के नेतृत्व में पिछड़ा वर्ग समाज को अपने पाले में एकजुट नहीं रख सकी। इसके अलावा उम्मीदवारों के चयन से लेकर पार्टी के संभावनाशील नेताओं की उपेक्षा भी इसकी बड़ी वजह रही। पार्टी जमीनी हकीकत से दूर होकर हवाई प्रचार में जुटी रही। इसका नतीजा सामने आया।”
प्रदेश की राजनीति को ठीक से समझने वाले लोग मानते हैं कि कुर्मी वोट बैंक के बिखराव को एनडीए की हार कारण बताना बेहद सरल विश्लेषण है। झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार आइके ओझा की मानें तो “राज्य का महतो वोट बैंक हमेशा से दो फैक्टर को ध्यान में रखकर मतदान करता रहा है। पहला स्थानीय उम्मीदवार किस जाति का है। अगर स्थानीय उम्मीदवार महतो हुआ तो समाज का बहुत बड़ा वर्ग संबंधित प्रत्याशी की पार्टी को वोट देने के लिए पहुंचता है। पिछले लोकसभा चुनाव से लेकर हाल के विधानसभा चुनाव तक यह परिपाटी देखी जा सकती है। लोकसभा चुनाव-2024 में जमशेदपुर सीट से लगातार तीसरी बार भाजपा प्रत्याशी बिद्युत बरण महतो की जीत इसका प्रमाण है। मौजूदा विधानसभा चुनाव में भी जहां जिस पार्टी से महतो उम्मीदवार मैदान में उतरे, सभी उम्मीदवारों को पर्याप्त वोट मिले। ईचागढ़ विधानसभा सीट पर सबिता महतो की जीत दूसरा बड़ा उदाहरण है। बात दूसरे फैक्टर की करें तो सजातीय उम्मीदवार नहीं होने की स्थिति में महतो समाज अपनी जाति के नेता के नेतृत्व वाले दल के लिए मतदान करता है। यही कारण है कि अब तक सुदेश महतो और अब जयराम महतो प्रदेश की राजनीति में प्रासंगिक माने जा रहे हैं।”
राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में भाजपा से कहां हुई चूक
वरिष्ठ पत्रकार बैजनाथ मिश्र और आइके ओझा दोनों ने इस बात को रेखांकित किया कि भाजपा की हार की सबसे बड़ी वजह अपनी क्षमता का समुचित उपयोग नहीं करना रहा। पार्टी ने अपने स्थानीय नेताओं को किनारे रखकर राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के चुनाव प्रचार को ज्यादा महत्व दिया। यही कारण है कि महतो, आदिवासी, सवर्ण समाज के नेताओं के होते हुए भी उन्हें प्रचार में नहीं झोंका गया।
बिद्युत बरण महतो : जमशेदपुर लोकसभा सीट से भारतीय जनता पार्टी से लगातार तीन बार के सांसद बिद्युत बरण महतो को चुनाव प्रचार में अहम जिम्मेदारी नहीं दी गई। महतो बाहुल्य सीटों पर अपेक्षा के अनुरूप प्रचार के लिए नहीं भेजा गया। लिहाजा जनता तक यह संदेश नहीं जा सका कि जयराम से कहीं अधिक महतो नेता एनडीए के पाले में खड़े हैं।
ढुल्लू महतो : धनबाद लोकसभा क्षेत्र से भाजपा के मौजूदा सांसद एवं बाघमारा सीट से तीन बार विधायक रहे ढुल्लू महतो भी ओबीसी समाज से आते हैं। वह चुनाव में पार्टी के लिए फायदेमंद साबित हो सकते थे। ढुल्लू महतो धनबाद, बोकारो से लेकर गिरिडीह तक पार्टी के पक्ष में माहौल तैयार कर सकते थे। ऐसा नहीं हुआ।
बाबूलाल मरांडी : भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी खुद चुनाव मैदान में उतर गए। पार्टी को उनकी जीत सुनिश्चित कराने के लिए पूरी ऊर्जा लगानी पड़ी। बाबूलाल मरांडी पर यह दायित्व था कि वह पार्टी के लिए पूरे प्रदेश में आदिवासी वोट एकत्र करते, लेकिन वह अपने विधानसभा क्षेत्र और गृह जिले के समीकरण से बाहर नहीं निकल सके।
चम्पाई सोरेन : झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) से अलग होकर भाजपा की सदस्यता लेने वाले राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री चम्पाई सोरेन भी अपनी सीट तक सिमट कर रह गए। वह अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए पार्टी के बड़े नेताओं के प्रचार के भरोसे रहे, जबकि वह खुद आदिवासी विशेष रूप से संताली समाज में मजबूत वोट बैंक बना सकते थे।
अर्जुन मुंडा : झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री एवं निवर्तमान केंद्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा भी पार्टी के पक्ष में माहौल बना सकते थे। इस चुनाव में सबसे बड़ा टास्क मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को जेल जाने से आदिवासी समाज के भीतर बनी सहानुभूति को वोट बैंक में बदलने से रोकने का था। मुंडा इसको बहुत हद तक कम कर सकते थे। यह नहीं हुआ।
डॉ. आशा लकड़ा : रांची नगर निगम की पूर्व मेयर एवं राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की सदस्य आशा लकड़ा विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए आदिवासी महिलाओं को एकजुट कर सकती थीं। वह कुछ हद तक कल्पना सोरेन का जबाब हो सकती थीं। वह पिछले दो विधानसभा चुनाव से विधानसभा के टिकट के लिए मजबूत दावेदार मानी जाती रही हैं लेकिन पार्टी ने उन्हें चुनाव में नहीं उतारा।