Jharkhand Bureaucracy : काफी पहले एक फिल्म आई थी ‘वक्त’, गाना भी काफी लोकप्रिय हुआ था…वक्त से दिन और रात, वक्त से कल और आज, वक्त की हर शय गुलाम, वक्त का हर शय पे राज। जी हां,आदमी को चाहिए कि वक्त से डरकर चले। कब किसका कैसा वक्त होगा, यह तो वक्त-वक्त की बात है। कुछ ग्रह-नक्षत्र की भी बात होती है। अब इन साहब को देखिए। राज्य में अच्छी-भली योजना को संभाल रहे थे। उम्मीद जताई जा रही थी कि ज्ञान की दुनिया को ‘आदित्य’ की रोशनी से रोशन कर देंगे। सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि वक्त खराब हो गया।
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गुरुजनों के पहनावे पर कुछ ज्यादा ही फोकस कर दिया। जिन गुरु के चरण स्पर्श को पुनीत कार्य माना जाता है, उनके चरण के पहनावे को लेकर चर्चा चरम पर पहुंच गई। फिर क्या था। वक्त खराब होना ही था। हो भी गया। उसी बीच हुक्मरान ने नौकरशाही को मथ दिया। साहब भी मथाकर किनारे लग गए। कुछ समय शांत रहे। वक्त का इंतजार किया। फिर अपना वक्त ठीक करने की जुगत में लग गए। कहा जाता है कि वक्त खराब हो तो निराश नहीं होना चाहिए।
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संभावनाएं कभी खत्म नहीं होतीं। कुछ ऐसी ही सोच रही होगी। किनारे लगे थे सो तिनके का सहारा चाहिए था। मन से ईश की वंदना करते रहे। कुछ उम्मीद की किरण जगी। नव प्रभात चाहिए था। सहारा मिला। वक्त बदलने का वक्त आ गया था। अब जरूरत बाबा के आशीर्वाद की थी। बिना आशीर्वाद के भला कहीं कुछ होता है…। फिर शुरू हुई बाबा के दर की दौड़। वो कहा जाता है न, किसी चीज को पूरे दिल से चाहो तो सारी कायनात उसे दिलाने में जुट जाती है। बाबा के दर तक दौड़ का फलाफल मिलने का वक्त आ गया। सकारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगा। अब तलाश थी तो एक अदद कुर्सी की।
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माथापच्ची शुरू हुई कि किसकी कुर्सी खाली कराई जाए, जहां साहब की ताजपोशी की जा सके। तलाश भी पूरी हो गई। कोयले वाले इलाके को इसके लिए पसंद किया गया। वाकई, वक्त बदल गया। सामूहिक प्रयास रंग लाया। बरसात में जलाशय लबालब हैं। तालाब में पंकज खिल रहा है। ऐसे में गुरु की कमी काफी खल रही थी। उनसे बात होती तो कुछ दिव्य ज्ञान और प्राप्त हो जाता। न जाने इन दिनों कहां खो गए हैं कि मुलाकात नहीं हो सकी। कोई बात नहीं, जाएंगे कहां। बात तो होगी ही। गुरु का ज्ञान नहीं, बाबा का आशीर्वाद सही।
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