गुरु मंत्रालय की सीढ़ी चढ़ रहे थे। उतरने के दौरान फ्लोर के बीचों-बीच आमना-सामना हो गया। अभिवादन संबोधन के साथ बात शुरू की। पूछा- बड़े दिनों बाद इधर दिखे गुरु? गुरु ने स्वभावगत उत्तर दिया। बोले, अरे अपने भी कुछ लोग बिल्डिंग में ऊपर-नीचे बैठते हैं। कभी-कभार मिलना-मिलाना होता रहता है। यह दीगर है कि एफबी पर कैंपस में ली गई सेल्फी अपलोड नहीं करता।
गुरु के वाक्य में बड़ा व्यंग्य था। वह मौजूदा दौर की हकीकत बयां कर रहे थे। गुरु को सहज करना जरूरी था। लिहाजा साथ चलने का ऑफर दिया। कहा- गुरु चलिए पहले आपको चाय पिलाते हैं। फिर मिलना-जुलना चलता रहेगा। गुरु सहजता से साथ हो लिए। दरअसल, संबंधों का भी अपना एक कंफर्ट लेवल होता है। इसमें एक-दूसरे की मर्जी की मौन स्वीकृति होती है। गुरु के साथ रिश्ता इसी आयाम तक पहुंच गया था। साथ लौटते हुए अबकी सवाल गुरु ने पूछा, तुम बताओ कहां आए थे? गुरु से बात छिपाई नहीं जा सकती थी। सो, सच-सच बोल दिया।
गुरु अखबार में एक अभियान चलना है। इसीलिए आंकड़े निकलवाने आ गया था। गुरु समझ गए। बोले- अच्छा अब तुम लोगों ने भी ये शुरू कर दिया। मेरा सुझाव है कि अभियान, प्लानिंग, मीटिंग वाले प्रोजेक्ट से जितना बचे रहोगे, उतरना बेहतर लिख-पढ़ सकोगे। बातचीत आगे बढ़ानी थी, लिहाजा पूछ लिया, ऐसा क्यों गुरु? गुरु फिर शुरू हो गए। बोले, यार देखो, इस प्रदेश का मिजाज थोड़ा अलग है। यहां सब कुछ बड़ी मस्ती में चलता है।
अगर इसे नियमों में बांधने की कोशिश करोगे तो फिर सब बिखर जाएगा। बात कुछ अधूरी सी लगी, पूरी करने के लिए गुरु को फिर छेड़ दिया। समझा नहीं गुरु? गुरु बोले, अच्छा अब तुम्हें एक कहानी सुनाते हैं। कुछ समय पहले की बात है, कोडरनगर में एक आदित्य देव नाम के राजा हुआ करते थे।
नौकरशाही : मनवा लागे इन कोल्हान
आदित्य देव ने नगर की सत्ता संभालते ही व्यवस्था बदलाव का प्रण ले लिया। अपने राज दरबारियों के साथ मिलकर तरह-तरह के प्रोजेक्ट शुरू किए। प्रारंभिक चरण में इसके सकारात्मक परिणाम भी आने लगे। कुछ दिनों में यह बात चारों तरफ फैल गई। आदित्य देव को लगा कि जनहित में किए गए कार्य के लिए जनता जय-जयकार करेगी। हुआ ठीक इसके विपरीत। प्रोजेक्ट में उलझने के कारण आदित्य देव की राजनीतिक पकड़ कमजोर हो गई। दांव-पेंच में फंसने के कारण सत्ता हाथ से चली गई। आदित्य देव ने दोबारा जतन किया। दूसरी बार नगर की बजाय राजधानी के एक किले में अपना ठिकाना बनाया।
आदित्य देव को लगा कि जो काम वह कोडरनगर में नहीं कर पाए, राजधानी में बैठकर पूरी रियासत के लिए कर देंगे। उन्होंने फिर एक प्रोजेक्ट हाथ में ले लिया। कुछ लोगों को यह बात बिल्कुल रास नहीं आई। कामकाज के दौरान की गई एक बयानबाजी आदित्य देव के गले की हड्डी बन गई और इस तरह दूसरी बार भी प्रोजेक्ट पूरा नहीं हो सका। तीसरी बार फिर राजधानी में एक और मौका मिला, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात। सो कहानी का लब्बोलुआब यह है कि वनांचल में प्रोजेक्ट नहीं प्रोसेस चलता है। जब तक हाथ में लगाम है, चलाते रहिए, जब लगाम छूटे तो सब कुछ छोड़कर आगे बढ़िए।
अगर प्रोजेक्ट के चक्कर में पड़े रहे तो करियर के प्रोजेक्ट पर ग्रहण लग सकता है। गुरु की कहानी और चाय की प्याली एक साथ खत्म हो गई थी। दिमाग में बस एक ही शब्द बार-बार उमड़-घुमड़ रहा था ‘प्रोजेक्ट’। गुरु बगैर और स्पष्टीकरण दिए अपने रास्ते पर निकल लिए थे।