सिल्क्यारा उत्तरकाशी में बन रही टनल जब ध्वस्त हुई,
इकतालिस श्रमिकों की सांसें पर्वत के ही उदरस्थ हुईं।
प्रार्थना, दुआ, अरदास, यज्ञ, जिसकी जैसी प्रभुताई थी,
दुनिया से टेक्नोलॉजी की भी मदद निरंतर आई थी।
फिर थकने लगे ज्ञान-कौशल, रह गए प्रार्थनाओं के बल,
खबरों में भय ऐसा व्यापा, ना जाने क्या हो जाए कल।
भीतर जिजीविषा की सांसें, बाहर यंत्रों की धड़कन से,
यह रण था पर्वत के सन्मुख दशरथ मांझी जैसे प्रण से।
यह धरती गिरमिटिया श्रमिकों की सहनशक्ति से परिचित है,
कोविड का त्रासद अवसर भी श्रमिकों से हुआ पराजित है।
श्रम के कर में हैं जगन्नाथ, पर्वत पा सकता पार नहीं,
बीते सप्तदश दिवस चाहे, श्रम की हो सकती हार नहीं।
था अल्पविराम मशीनों से, श्रमिकों ने पूर्ण विराम दिया,
शिक्षा-तकनीक सहायक थी, श्रम ने सर्वोत्तम काम किया।
श्रम की जिजीविषा जीत गई, विजयी श्रम का पुरुषार्थ हुआ,
सौरज, धीरज के पहियों पर श्रम का रथ है, चरितार्थ हुआ।
हर कठिन परिस्थिति साक्षी है, शिक्षित पहले घबराता है,
जिसको अक्षर तक ज्ञान नहीं, हर मुश्किल से टकराता है।
मानवता के कल्याण हेतु जब कदम बढ़ाया जाएगा,
पथ के हर पर्वत के मद से दशरथ मांझी टकराएगा।
डॉ जय शंकर प्रसाद सिंह, वाराणसी ,उत्तर प्रदेश
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