मनुष्यों की छोटी छोटी आदतों का जो असर पर्यावरण पर हो रहा है, बहुत हद तक यह संभव है कि उन्हें इस बात का अहसास तक ना हो कि उनकी छोटी सी हरकत ना केवल पक्षियों बल्कि पशुओं के लिए भी जानलेवा साबित हो रही है। अब भी भारत की एक बड़ी आबादी चूहों से निजात पाने के लिए चूहों को मारनेवाले जहर का इस्तेमाल कर रही है।
गाँव और कस्बों में तो यहज्ञबात आम थी पर अब इस किस्म के विज्ञापन शहर और सोशल मीडिया तक में देखे जा सकते हैं कि ‘इसे चूहे खाये घर में पर मरें जाकर घर से बाहर।’ दर असल यह चूहे जब बाहर जाकर मरते हैं या घर में जहर देकर मारे गये चूहों को आप बाहर फेंकते है तो यह बात भूल जाते हैं कि चूहे कुछ पक्षियों को ना प्रिय हैं बल्कि उनकी आहार श्रृंख्ला का एक जरुरी हिस्सा है। इसका असर उल्लूओं पर देखने को मिल रहा है।
कुछेक प्रजाति के उल्लुओं को छोड़ दें तो कई उल्लू तो यूं भी दुर्लभ हो चुके हैं। जो हैं हाल के दिनों में उनकी भी एक दो करके मौत कई क्षेत्रों में दर्ज की गयी है जिसमें दो उल्लुओं के चोंच से खून आने और किसी चोट का निशान की गैर मौजूदगी के कारण इस बात का खुलासा हो सका कि ऐसा प्वायजनिंग के कारण हुआ। लेकिन फिर सवाल उठा कि भला उल्लुओं को जहर देकर कौन मारेगा? और क्यों मारेगा?
ऐसा नहीं है कि मनुष्य उल्लुओं की हत्या नहीं करता है। करता है लेकिन वह मरे हुए उल्लुओं को नहीं मारता है, जिंदा उल्लुओं को अंधविश्वास के कारण मारता है। यह भी अजब विडंबना है कि जिस हिन्दू देवी लक्ष्मी का वाहन है उल्लू, उसी लक्ष्मीपूजन की रात अंधविश्वास के कारण उल्लुओं की बलि देने की प्रथा धनपशुओं के बीच मौजूद है। लेकिन इन उल्लुओं की बलि नहीं दी गयी थी, बल्कि जहर के कारण आंतरिक रक्तस्राव की वजह से इनकी मृत्यु हुई थी।
तब जाकर चूहों को जहर देकर मारने से होनेवाले एक नये नुकसान का पता चला। जैसे कुछ समय पहले गिद्धों की घटती संख्या के मूल में मनुष्यों के लिए इस्तेमाल की जानेवाली दर्दनिवारक दवा डाइक्लोफैनिक की भूमिका निकल कर सामने आई थी। दर असल हुआ यह था कि मनुष्यों के लिए इस्तेमाल की जानेवाली इस दवा को पशुओं के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा था। गिद्ध जो मुर्दाखोर होते हैं। इन मरे पशुओं को खाकर अपना अस्तित्व बनाये हुए था।
इस डाइक्लोफैनिक के असर से उनकी मौतें होने लगीं थीं। 2008 में इस दवा पर भारत सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था। यूँ भी खत्म होती खेती के कारण मवेशियों की संख्या कम होती गयी है, गांव और कस्बों में वह ठिकाने भी खत्म हो गये जहाँ मृत मवेशियों को फेंका जाता था। गिद्ध भी अब भारत में कुछ अभयारण्यों और संरक्षित जगहों तक सिमट कर रह गये हैं।
खेती में होनेवाले कीटनाशकों के इस्तेमाल के पक्षियों पर पड़नेवाले प्रभावों का अध्ययन जारी है। पर उन अध्ययनों से भी जो शुरुआती रुझान सामने आये हैं वह इस तथ्य की ओर संकेत कर रहे हैं कि बहुत से कीटभक्षी पक्षियों पर इसका धीमा ही सही पर असर दिख रहा है। कुछेक कीटों के कीटनाशकों द्वारा नियंत्रित किये जाने से कुछ कीटभक्षी पक्षियों की संख्या प्रभावित हुई है।
मकर संक्रांति में, गणतंत्र दिवस पर औरअन्य कुछ मौकों पर देश के अलग अलग हिस्सों में पतंगबाजी की परम्परा है। पतंगबाजी में बढ़ते चाइनीज धागों और मांझों का एक दुष्प्रभाव यह पड़ा है कि पतंग के धागे जो पेड़ की शाखों और बिजली के पोल आदि पर लटकी रह जाती है, उसमें फंस कर भी बहुत से पक्षी प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में जान गंवाते हैं।
चूंकि पतंगबाजी आबादी वाले इलाकों में हुआ करती है तो पतंग के धागों से होने वाली मौतों में कबूतर, कौआ, गौरेया, मैना और बगुलों को देखा जा सकता है। हाईटेंशन तारों के संपर्क में आकर मरने वाले पक्षियों की भी अलग दास्तान है।
पक्षियों की फोटोग्राफी के सिलसिले में की जानेवाली यात्राओं में इस बार एक अनूठी और हैरतंगेज जानकारी हाथ लगी। यद्यपि इसका संबंध पक्षियों से नहीं है पर मनुष्य की आदत से पशु जगत को होने वाले नुकसान से है। पर इस जानकारी तक पहुँच सकने की वजह पक्षी ही रहे।
तो हुआ यूं कि वंदे भारत जैसी ट्रैन के परिचालन के साथ ही मवेशियों से टकराने की कई घटनाएं सामने आईं। साथ में रेलवे के कुछ चालक इस दफा बोगी में मौजूद थे। पूछने पर उन्होंने इसके टालने पर कई बातें की। पर एक ऐसी बात भी बताई जिसका संबंध भारतीय रेलवे और भारतीय नागरिक दोनों की आदतों से था। उन्होंने बताया कि रेल की यात्रा में यात्री अपने साथ जो भोजन लाते हैं, उसका कचरा वह चलती ट्रेन से निबटाते चलते हैं।
कुछ जो समझदार होते हैं वह सिंक के नीचे उपलब्ध कराई गयी कचरा पेटी में डाल देते हैं। लेकिन उसके भर जाने पर उसको भी चलते हुए ही फेंक दिया जाता है। उन कागज और पालीथीन में बंधी सामग्री के लोभ में गायें और अन्य मवेशी कई बार रेलवे ट्रैक तक आ जाते हैं तो यह हादसा हो जाता है। अगर हम इन छोटी आदतों को सुधार लें तो पशु पक्षियों की दुनिया में होने वाले हादसों में थोड़ी कमी लाई जा सकती है।
डॉ. राहुल सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर, विश्व-भारती, शांतिनिकेतन
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