Kedarnath : रात की खामोशी में धीरे-धीरे सबकुछ सिमटते हुए एक नदी के शोर में घुलकर रह गया था। पर यह शोर भी इतना शांत, सधा और संगीतमय था कि मन कहीं अटक सा गया। देर रात टेंट से निकलकर बाहर आया तो मंदाकिनी अपनी शिथिलता लिए बहुत ही मंद गति से बह रही थी। मन्दाकिनी नदी अलकनंदा नदी की एक सहायक नदी है।
इस नदी का उद्गम स्थान यही चाराबाड़ी हिमनद है। सबकुछ शांत और मौसम बहुत ही ठंडा है। इस समय तापमान की बात करें तो जीरो के आसपास या फिर माइनस में होगा। यह इस जगह के लिए कोई नई बात नहीं है। सर्दी के मौसम में अक्सर ऐसा होता है। इस मौसम में वैसे भी यहां कोई नहीं आता है और जो लोग मंदिर आते भी हैं तो उन्हें दूर दूर तक सफेद बर्फ के फैलाव के अलावा कुछ और नजर नहीं आता है।
Kedarnath : मेरे लिए यह यात्रा एक रोमांच का विषय था इसलिए दिल्ली से सीधे केदारनाथ मंदिर आ गया।
इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना का इतिहास यह है कि हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थना अनुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वत राज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित हैं।
इसी जगह की महत्ता से पंच केदार की महिमा जुड़ी हुई है। पंच केदार की कथा ऐसी मानी जाती है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृ हत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे।
भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतर्ध्यान होकर केदार में जा बसे। दूसरी ओर, पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को संदेह हो गया था।
अत: भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाड़ों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतर्ध्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया।
भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढ़ संकल्प देखकर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमांडू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है।
शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमहेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंच केदार कहा जाता है। इन सभी जगहों पर शिव जी के भव्य मंदिर बने हुए हैं।
मैंने एक रात केदारनाथ में बिताने के बाद अगली सुबह दर्शन किया और वापस लौटने का समय आ गया। लेकिन आपको बता दूं कि मेरे यहां रात रुकने का एक और भी कारण था वह यह कि वासुकी ताल का सफर तय कर सकूं। यह मंदिर के दाहिनी तरफ क्षीर गंगा के स्रोत वाले पर्वत पर स्थित है।
केदारनाथ आने वाला हर इंसान वासुकी ताल के बारे में जरूर सुना होगा लेकिन वहां तक पहुंचना हर किसी की बात नहीं है। खराब मौसम, दुर्गम रास्ते और खो जाने का डर हर बढ़ते कदम को रोक देता है।
यही कारण है कि यहां हर साल बमुश्किल 40 से 50 लोग ही पहुंच पाते हैं और जो लोग पहुंचते भी वह वापस लौट भी पाएंगे इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं हो पाते। लेकिन फिर भी लोग जाते हैं और वापस भी लौटते हैं।
मैं भी नहीं जा पाता यदि मुझे एनआइएम के वह अधिकारी नहीं मिलते। हमने पूरी तैयारी कर ली थी और हमारे सामने बस अब एक हिम से ढका बहुत ही दुर्गम रास्ता था। थोड़ा बहुत खाने पीने का सामान, एक बहुत छोटा सा पिट्ठू बैग और एक मजबूत डंडा ताकि बढ़ते हुए रास्तों का अनुमान लगाया जा सके।
पहला कदम बढ़ाते हुए हृदय थोड़ा सा कांपा, पैर डगमगाए पर हिम्मत काम आई और इसी हिम्मत ने आगे बढ़ने का मुझमें साहस पैदा किया। लेकिन दुर्गमता जितना सोचा था कहीं उससे भी ज्यादा थी। पूरे रास्ते बर्फ और पत्थर से ढके हुए थे। यह हिम से ढके रास्ते भी ना सिर्फ देखने में अच्छे लगते हैं, जब चढ़ो तो सबसे बड़े खतरे के रूप में सामने आते हैं।
पत्थरों पर भरोसा किया जा सकता है लेकिन हिम से पटे रास्तों पर कभी नहीं। मुझे हिमशिखरों और तरह-तरह के पर्वत खंडों के अलावा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। मन हो रहा था कि आगे बढ़कर चूम लूं लेकिन वहां तक पहुंचने का हर रास्ता गायब था। कहीं गहरी ढलान, कहीं खड़ी चढ़ाई, कहीं ऊबड़ खाबड़ पर्वत माला, दूर-दूर तक कहीं कोई समतल जगह थी ही नहीं। लेकिन सोचा कि जब यहां तक आ ही गया हूं तो हार भला क्यों मानना?
हवा में मौजूद ठंडक बढ़ने लगी थी। आकाश में मौजूद बादल धरती की तरफ बढ़ते हुए घेराबंदी करते जान पड़े और देखते ही देखते इतना अंधेरा घिर आया कि मानों रात हो गई हो। फिर भी आगे की तरफ बढ़ता रहा। कुछ देर बाद हवा में ऑक्सीजन की मात्रा इतनी कम हो गई कि सांस लेना मुश्किल होने लगा तो पता चला कि अब मैं 15,500 की ऊंचाई पर पहुंच चुका हूं।
तो क्या वासुकी ताल पहुंच गया? मैंने खुदसे पूछा लेकिन कुछ देर बाद मेरी ही आवाज़ मेरी आवाज की प्रतिध्वनि बन मेरे कानों में लौट आई और बादल किसी शैतान की तरह मेघ बन मुझ पर टूट पड़े।
आखिरकार, वही हुआ जिस चीज की मुझे आशंका थी। तेज बारिश और बादलों की गर्जना के बीच जान बचाना मुश्किल लगने लगा। मैं डरा हुआ था, सहमा हुआ था, ठंड की वजह से मेरा पूरा शरीर कांप रहा था पर अपने लिए निर्णय पर मुझे कोई पछतावा नहीं था।
केदारनाथ और वासुकी ताल पहुंचने का जो सुकून था सही मायने में वह मेरे हर डर से बड़ा था और यह मेरी इस यात्रा को हमेशा हमेशा के लिए यादगार बना गया।
संजय शेफर्ड
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