बेंगलुरु में एआई इंजीनियर अतुल सुभाष के पत्नी द्वारा प्रताड़ित किए जाने और परिवार को कई मुकदमों में फंसाने के कारण अवसाद में आकर आत्महत्या करने के बाद कई सवाल उठ रहे हैं।
अतुल द्वारा जारी 90 मिनट के वीडियो और 24 पन्नों के सुसाइड नोट में पत्नी पर लगाए बेहद गंभीर आरोपों के बाद जो सवाल सबके जेहन में कौंध रहें हैं, वे ये हैं कि क्या उनके पास आत्महत्या के अलावा कोई और विकल्प नहीं था? क्या उनके पास कोई कानूनी विकल्प मौजूद ही नहीं था? क्या हमारा कानून इस कदर कमजोर है कि पुरुष के पास आत्महत्या ही आखिरी विकल्प रह जाता है? क्या जेंडर इक्वालिटी कि दुहाई देने वाले अपने देश भारत में पुरुषों को महिला की तुलना में कम अधिकार मिले हैं? गोरखपुर के जाने-माने वकील शुभेंद्र सत्यदेव से बातचीत के आधार पर आइये एक-एक कर जानने का प्रयास करते हैं कि इस प्रकार के मुकदमों में आखिर होता क्या है।
अन्य मुकदमों की तरह नहीं होती सुनवाई?
महिला (पत्नी) द्वारा प्रताड़ित किए जाने पर पुरुष के पास विकल्प मौजूद तो हैं लेकिन ऐसे मामलों में दायर किए जाने वाले मुकदमे की सुनवाई अन्य मामलों से काफी अलग होती है। इस प्रकार के मामलों को अदालत पारिवारिक विवाद का मुकदमा मानता है। अदालत इस प्रकार के मुकदमों में यह मानकर चलता है कि किसी भी परिवार को टूटने से बचाने का हर संभव प्रयास होना ही चाहिए। आमतौर पर ऐसे मामलों में सुलह-समझौते कराने के कई दौर चला करते है। जिसमें काफी समय लगता है और बार-बार मुकदमे की तारीख पर उपस्थित होना पड़ता है।
हर सुनवाई में खुद उपस्थित होने की बाध्यता
इस प्रकार के मुकदमों में भले ही कानूनी सहायता के लिए वकील चुनने का विकल्प उपलब्ध होता है, लेकिन उसे वकालतनामा नहीं दिया जा सकता। मसलन, वकील इस प्रकार के मुकदमों की सुनवाई के दौरान आपकी सहायता जरूर कर सकता है, परंतु वह आपकी जगह किसी भी सुनवाई में बिना आपकी मौजदुगी के पक्ष नहीं रख सकता। इसका एक अर्थ यह भी है कि अदालत की हर सुनवाई में आरोपी और वादी को उपस्थित होने की अनिवार्यता होती है। भले ही पुरुष विदेश में काम करता हो या देश के किसी अन्य हिस्से में, उसे मुकदमे की हर सुनवाई में मौजूद रहना पड़ता है। इससे पुरुष के समक्ष बेहद मुश्किल हालात पैदा हो जाते हैं। वह अपने जॉब और मुकदमे में उलझता चला जाता है। न्यायप्रणाली की लचर व्यवस्था इसे और चुनौतीपूर्ण बना देती है। कई तारीखों पर पुरुष की उपस्थिती के बावजूद अदालत में सुनवाई ही नहीं हो पाता और तारीख पर तारीख और फैसलें में बढ़ती देरी पुरुष को मानसिक रूप से कमजोर बना देती है और कई बार वह अवसाद में आकर आत्महत्या को आखिरी विकल्प मान लेता है।
अब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या पुरुष मुकदमे कि सुनवाई को अपने कार्यस्थल पर कराने कि मांग नहीं कर सकता? इसके लिए कोई भी कानूनी विकल्प पुरुष के पास उपलब्ध नहीं है। इसके उलट यदि महिला किसी और जगह निवास करने लगती है तो वह वहां के अदालत में मुकदमे को ट्रांसफर करने की अपील कर सकती है। ऐसे में कामकाज छोड़कर हर बार तारीख पर पहुंचना एक समय बाद बोझ बन जाता है, जो आत्महत्या जैसा गंभीर विकल्प चुनने में उत्प्रेरक का काम करता है।
पूरा परिवार भी झेलता है ट्रॉमा
इस प्रकार के मामले चूकीं पारिवारिक मुकदमों की श्रेणी में आते हैं तो इसमें पूरे परिवार को इसका असर झेलना पड़ता है। महिला द्वारा मुकदमें में पूरे परिवार को घसीटा जाता है। ऐसे में परिवार का वह व्यक्ति भी इस प्रताड़ना का शिकार हो जाता है जिसका सामना महिला से गाहे-बगाहे या एक-आध बार ही हुआ हो। ऐसे में परिवार के हर सदस्य को सामाजिक एवं मानसिक रूप से प्रताड़ित होता देख पुरुष का धीरज जवाब दे जाता है और वह ऐसा फैसला ले लेता है।
एलुमनी का असहनीय बोझ..
महिला द्वारा दायर झूठे मुकदमे में एलूमनी या सुलह के रूप में अत्याधिक राशि मांग की जाती है कि पुरुष के पास उसे कम कराने के लिए अदालत का काफी चक्कर लगाना पड़ता है। कई बार यह राशि कम तो की जाती है पर वह भी इतनी अधिक होती है कि पुरुष उस के बोझ तले दबता चला जाता है। महिला कमा भी रही हो तो भी उसे यह बोझ उठाना ही पड़ता है। भले ही यह मानवीय रूप से सही नहीं प्रतीत होता हो पर देश का कानून पुरुष को ही महिला का खर्च उठाने का जिम्मेवार मानता है।
पुरुष के पास उपलब्ध नहीं एलुमनी या सुलह राशि मांगने का अधिकार
एक सवाल यह भी उठता है कि क्या पुरुष भी महिला की तरह एलुमनी या सुलह राशि की मांग कर सकता है? तो इसका उत्तर यह है कि पुरुष के पास ऐसा कोई भी विकल्प नहीं है। वह भले ही बेरोजगार हो या किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित हो उसे किसी प्रकार की राशि मांगने का अधिकार कानूनी रूप से नहीं है?
सामाजिक प्रताड़ना का शिकार बनता है पुरुष
सामाजिक प्रताड़ना भी पुरुष के लिए आत्महत्या का चयन करने की बड़ी वजह बन जाया करती है। आसपास के लोग महिला द्वारा पुरुष पर मुकदमा किए जाने की जानकारी होने पर उसकी खिल्ली उड़ाते हैं। कार्यस्थल पर भी लोग इसी प्रकार का व्यवहार करते हैं। साथी-संघाती भी समय के साथ नहीं देते, ऐसे में वह गंभीर अवसाद का शिकार हो जाता है। और इस प्रकार का कदम उठा लेता है।
आखिर पुरुष करे, तो क्या करे?
इस प्रकार के झूठे मुकदमे से निपटने के लिए जल्द से जल्द हमें कार्यवाही करनी चाहिए ताकि भविष्य में होने वाली समस्याओं से बचा जा सकें। आइये ऐसे मामलों से निपटने के कानूनी उपायों को विस्तार से जानते है:-
- वकील की सहायता लें- ऐसे मामलों में आरोप लगते ही सबसे पहले जल्द से जल्द किसी अनुभवी वकील से मिले और उसे अपने मामले की सारी जानकारी विस्तार से बताकर आगे की कार्यवाही के लिए सहायता लें। वकील कानूनी प्रक्रिया को अच्छे से समझते हैं और झूठे आरोपों से बचने में आपकी मदद कर सकते हैं।
- BNSS धारा 528 के तहत हाई कोर्ट में याचिका (Quash Petition) दाखिल करना – अगर किसी व्यक्ति की पत्नी उस पर झूठे आरोप लगाती है तो भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 के तहत हाई कोर्ट में याचिका दाखिल करके झूठे मामले को रद्द करवाया जा सकता है। अगर साबित हो जाता है कि आरोप झूठा और बेबुनियाद है, तो अदालत मामला समाप्त कर सकती है।
- अग्रिम जमानत का प्रावधान – दहेज उत्पीड़न के झूठे केसों से बचने के लिए अग्रिम जमानत लेना बहुत ही जरुरी होता है। इससे आरोपी व्यक्ति को पुलिस द्वारा की जाने वाली गिरफ्तारी से बचने में मदद मिलती है। अगर किसी व्यक्ति को शक है कि उसके खिलाफ झूठा केस दर्ज हो सकता है, तो वह अग्रिम जमानत की याचिका कोर्ट में दाखिल कर सकता है।
- काउंटर केस दर्ज करना – ऐसे मामलों से बचने के लिए पति और उसके परिवार वाले महिला के खिलाफ काउंटर केस दर्ज कर सकते हैं, जैसे कि मानहानि का केस। भारतीय न्याय संहिता की धारा 356 के तहत मानहानि का केस किया जा सकता है।
- इसके साथ ही, झूठे आरोप के आधार पर परिवार को परेशान करने के लिए मानसिक उत्पीड़न का मुकदमा भी दाखिल किया जा सकता है।