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प्रकृति, प्रतिकूलता और प्रवास

by Rakesh Pandey
प्रकृति, प्रतिकूलता और प्रवास
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पक्षियों की दुनिया कई मामलों में अद्भुत है। प्रकृति की प्रतिकूलता से लड़ने का उनका जो तरीका है, वह मनुष्यों के लिए पर्याप्त प्रेरक साबित हो सकता है। प्रकृति की प्रतिकूलता से निबटने के लिए पक्षी भिड़ने की बजाय वहाँ से हटने की रणनीति अपनाते हैं और प्रतीक्षा करते हैं, परिवेश के अनुकूल होने का। प्रतिकूलता से लड़ कर वे अपनी ऊर्जा खर्च नहीं करते बल्कि अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल वे अनुकूलता की तलाश में करते हैं। हर साल लाख नहीं करोड़ों की संख्या में पक्षी प्रवास के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करते हैं। यह परिघटना अपने आप में इतनी विलक्षण है कि इस पूरी प्रक्रिया से परिचित होना आपको चमत्कृत कर सकता है।

क्या आप यकीन करेंगे की सर्दियों में अलास्का, मंगोलिया, चीन, साइबेरिया, हिमालय लांघ कर पक्षी भारत के न केवल मैदानी भागों में बल्कि झारखंड के अलग-अलग हिस्सों में हजारों की संख्या में आते हैं। इसमें गौरेया के आकार के पक्षी से लेकर हंस और बत्तख की अनेक प्रजातियाँ शामिल है। किसी भी पक्षी प्रेमी के लिए सर्दी सर्वाधिक मूल्यवान ऋतु है। यह अपने आप में कितनी खूबसूरत बात है कि संसार के अलग-अलग हिस्सों से कयामत की खूबसूरती उड़ कर आपके इर्द-गिर्द के जलाशयों में आ उतरती है। जिन जलाशयों में वे आते हैं, वे सच में बहुत खुशकिस्मत हैं। पक्षियों के इस माइग्रेशन को गौर से देखे तो वह कुछ हैरतंगेज तथ्य को रेखांकित करते हैं। इनमें से सब कुछ अलग विशेषताओं को धारण करते हैं। कोई इतनी ऊँचाई में उड़ने की काबिलियत रखता है जहाँ मनुष्य के फेफड़े साँस लेने की योग्यता नहीं रखते हैं।

किसी के पंखो का विन्यास इतनी लंबी और ऊँची उड़ान के लिए मानो खास तरीके से डिजायन किया गया हो। कोई एक बार में 1000 से 1200 किमी की दूरी एक उड़ान में तय करने की कूबत रखता है। सुन कर यह अविश्वसनीय लग सकता है, लेकिन यह सत्य है। इस प्रवास का सबसे दुखद पहलू है इन प्रवासी पक्षियों का शिकार। आप सोचिये जो 1000 से 6000 किमी की दूरी तय करके सकुशल आपके जलाशयों तक तमाम विपदाओं को लाँघ कर आते हैं, उनके शिकार से बड़ा अनैतिक अपराध और क्या हो सकता है? हड्डी जमाने वाली कड़ाके ठंड से बचने के लिए और बर्फ हो चुके पानी के कारण मजबूरन अपेक्षाकृत कम सर्द जगहों की ओर पक्षी अपने सर्वाइवल के लिए माइग्रेट करते हैं। यह माइग्रेशन कोई मामूली परिघटना नहीं है। हमें ठीक-ठीक मालूम नहीं है कि पक्षियों का यह माइग्रेशन कब से चला आ रहा है।

लेकिन पक्षियों के अध्येता जब माइग्रेशन के अलग-अलग पहलुओं को सामने लाते हैं तब जाकर इसकी विलक्षणता का हम थोड़ा अनुमान कर पाते हैं। मसलन आप केवल इस बिन्दु पर विचार करके देखिये कि आखिर हर साल में यह हजार से पाँच हजार किलोमीटर की दूरी तय करने वे एक सुनिश्चित पोखर, आहर, डैम, नदी तक कैसे पहुँचते हैं? आखिर कैसे पक्षियों की एक पीढ़ी अपनी दूसरी पीढ़ी तक यात्रा के मार्ग का सूचना साझा करती होगी? और कैसे सदियों से यह प्रैक्टिस इसी रूप में जारी है? इसके बकायदा आँकड़े और प्रमाण उपलब्ध हैं कैसे यह अविश्वसनीय-सी लगनेवाली परिघटना हर साल बिना नागा इसी रुप में घटित होती है। उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की साझेदारी की जो समझदारी इनमें दिखती है, वह सीखने की चीज है। देश के कई हिस्सों में ऐसे जलाशय है जिसकी इकोलॉजी बहुत विभिन्नता लिए हुए है, ऐसी जगहों में सर्दियों में स्वर्ग उतर आता है। राजस्थान का भरतपुर हो या ओड़िशा का मंगलाजोड़ी या फिर गुजरात का नाल सरोवर, यह सभी कुछ ऐसी चुनिंदा जगहें हैं, जहाँ माइग्रेशन के जादू को महसूस किया जा सकता है।

मौसम सर्दियों का है इसलिए सर्दियों के माइग्रेशन की बात कर रहा हूँ, पर पक्षियों के संसार में यह प्रवासन साल भर चलने वाली गतिविधि है। हर ऋतु के माइग्रेशन का अपना सौंदर्य होता है, समय होता है। जंगल, पोखर और मैदान वही होते हैं बस उसमें दिखने और रहने वाले परिन्दे बदल जाते हैं। कुछ पक्षी होते हैं जो साल भर आपको दिखते हैं लेकिन पक्षियों की एक बड़ी दुनिया है जो ऋतुओं के अनुसार आबाद होती है और अदृश्य होती है। फरवरी-मार्च के आस-पास जब तापमान बढ़ना आरंभ होता है तो वह वापसी की तैयारी में जुट जाते हैं। लौटने के क्रम में देवघर में पिछले साल मैं ऐसी घटना का साक्षी बना जो इससे पहले नहीं आब्जर्व कर सका था। इनका लौटना ‘रिवर्स माइग्रेशन’ कहलाता है। इस रिवर्स माइग्रेशन की शुरुआत के पहले बार हेडेड गूज और ग्रे लेग गूज एक ही आहर में तकरीबन साढ़े तीन हजार से चार हजार की संख्या में दिखे। और फिर दो-तीन सौ की संख्या में उनका लौटना आरंभ हुआ। तीन से पाँच दिन के भीतर वह पोखर नौ-दस महीने के लिए सूना हो चुका था।

उनका लौटना भी एकबारगी नहीं होता है मतलब सारे प्रवासी पक्षी एक साथ नहीं लौट जाते हैं। सर्दियों के इन अतिथियों में सबसे आखिरी तक टिके रहने का रिकार्ड इस ओर तो रुडी शेल्डक (सुर्खाब या ब्राह्मणी बत्तख) के नाम है जो मई तक टिकी दिख जाती है। पक्षियों के बारे में जानकारी के अभाव में एशियन ओपन बिल या स्टार्क (जांघिल या घोंघिल) तक को लोग साइबेरियन पक्षी के तौर पर बोलते देखे जा सकते हैं। आम लोगों के बीच इन माइग्रेटरी बर्डस के लिए साइबेरियन पक्षी अब लगभग स्वीकृत और प्रचलित हो चुका है। सर्दियों के इन प्रवासियों में से हर का संबंध साइबेरिया से नहीं होता है। वे दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से अलग-अलग हिस्सों की दूरी तय किया करते हैं।

कई संस्थायें हैं जो उनके माइग्रेशन की पूरी अवधि का रिकार्ड रखती हैं इसके लिए उनके पैर में रिंग डाल दिया जाता है जिसके रंग और अंकों से उसकी टैगिंग का पता चलता है। वह कहाँ से चला और दुनिया के किन-किन हिस्सों में गया? एक दिन में कितनी दूरी तय की? उसने रास्ता कौन सा चुना? उसके पड़ाव कौन-कौन से रहे? सोशल मीडिया पर ऐसे प्लेटफार्म हैं जहाँ ऐसे रिंग्ड और टैग किये हुए पक्षियों की तस्वीर डाल कर उसके ब्यौरे पाये जा सकते हैं। बर्डर और बर्ड वार्चर की एक ऐसी बड़ी दुनिया है जो अपने साल भर के आब्जर्वेशन को कई मंचों पर साझा करते हैं यह फ्री डाटा शेयरिंग प्लेटफार्म पक्षियों की दुनिया के बारे में जरूरी और प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध कराने का काम करते हैं।

भारत में केरल, बंगाल और महाराष्ट्र इस फ्री डाटा शेयरिंग के मामले में अन्य राज्यों से काफी आगे हैं। इधर कोरोना काल में झारखंड ने भी इस दिशा में पहल की है। धीरे-धीरे यह कारवां भी चल निकला है। राँची, जमशेदपुर और धनबाद इस मामले में अव्वल हैं, जहाँ बर्ड फोटोग्राफर्स और बर्ड वाचर्स की एक नयी पीढ़ी बहुत शानदार काम कर रही है। जरुरत है उन्हें जरूरी संसाधन और प्रोत्साहन उपलब्ध कराने की। वन विभाग इस दिशा में उनके सुझावों के साथ सहयोग करना आरंभ करें तो झारखंड में पक्षियों की जो विविधता है उसका ना सिर्फ प्रामाणिक दस्तावेजीकरण किया जा सकता है बल्कि पक्षियों के संरक्षण और संवर्द्धन की दिशा में भी ऐतिहासिक काम किया जा सकता है।

राहुल सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर, विश्व भारती, शांति निकेतन

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