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RAJENDRA PRASAD DEATH ANNIVERSARY : 70 रुपये की नौकरी से लेकर राष्ट्रपति बनने तक का संघर्ष, खादी से जुड़ी यादें और परिवार के बारे में दिलचस्प तथ्य

डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी पौत्री शशि के कन्यादान में खुद से खादी की साड़ी बनाई थी। यह न केवल उनकी सादगी का प्रतीक था, बल्कि उनके समाज के प्रति प्रेम और सम्मान को भी दर्शाता था।

by Rakesh Pandey
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पटना: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता और भारत के पहले राष्ट्रपति, देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद की आज पुण्यतिथि है। उनका जीवन संघर्ष, समर्पण और सादगी का प्रतीक था। उनका जन्म 3 दिसंबर 1884 को बिहार के छपरा जिले के जीरादेई गांव में हुआ था। भारतीय राजनीति में उनका योगदान अविस्मरणीय रहेगा और आज हम उनके जीवन के उन पहलुओं को याद करेंगे, जो उनके संघर्ष और शख्सियत को उजागर करते हैं।

शिक्षा का प्रारंभ: बचपन से ही लगन और मेहनत

राजेंद्र प्रसाद ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा छपरा के जिला स्कूल से प्राप्त की। पांच साल की उम्र में उन्हें फारसी, हिंदी और गणित की शिक्षा मिली। इसके बाद, उन्होंने पटना के टीके घोष एकेडमी और बिहार विद्यापीठ में शिक्षा प्राप्त की। बिहार विद्यापीठ के प्रति उनका गहरा लगाव था और उन्होंने इस संस्थान की ज़मीन खरीदने के लिए अपनी व्यक्तिगत मदद दी। कहा जाता है कि उनकी आत्मा बिहार विद्यापीठ में बसती थी।

70 रुपये की तनख्वाह से राष्ट्रपति बनने तक का सफर

डॉ. राजेंद्र प्रसाद का जीवन संघर्षों से भरा था। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक शिक्षक के रूप में की थी। वे अपनी मेहनत और लगन से भारतीय समाज में एक नई क्रांति लाने के लिए तैयार थे। जब वे अध्यापन करते थे, तो उन्हें केवल ₹70 प्रति माह तनख्वाह मिलती थी। आज भी उनकी सैलरी स्लिप इस बात की गवाह है कि उन्होंने अपनी यात्रा किस कठिनाई से शुरू की थी। हालांकि, उनके जीवन का यह संघर्ष उन्हें भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण नेता बना गया। 1952 में वे भारत के पहले राष्ट्रपति बने और देश की राजनीति में उनका नाम अमर हो गया।

खादी के प्रति अडिग प्रेम: राष्ट्रपति भवन में चरखा चलाना और खादी की साड़ी का तोहफा

डॉ. राजेंद्र प्रसाद को खादी से बेहद लगाव था। वे हमेशा खादी के कपड़े पहनते थे, चाहे वे किसी भी कार्यक्रम में क्यों न जाते। राष्ट्रपति भवन में रहते हुए वे अक्सर चरखा चलाते थे और उनकी यह सादगी उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा थी। एक खास घटना भी सामने आई, जिसमें उन्होंने अपनी पौत्री शशि के कन्यादान में खुद से खादी की साड़ी बनाई थी। यह न केवल उनकी सादगी का प्रतीक था, बल्कि उनके समाज के प्रति प्रेम और सम्मान को भी दर्शाता था।

परिवार की सादगी: राजेंद्र बाबू के तीनों पुत्र लाइमलाइट से दूर

डॉ. राजेंद्र प्रसाद के तीन बेटे थे- मृत्युंजय प्रसाद, धनंजय प्रसाद और जनार्दन प्रसाद, लेकिन वे हमेशा लाइमलाइट से दूर रहे। मृत्युंजय प्रसाद ने एक बार चुनाव भी लड़ा था और जीत हासिल की थी, लेकिन उसके बाद भी वह राजनीति में सक्रिय नहीं रहे। राजेंद्र बाबू का परिवार हमेशा साधारण जीवन जीता था, और उनके बेटों ने कभी भी सार्वजनिक जीवन में बहुत अधिक भागीदारी नहीं की।

बिहार विद्यापीठ में उनका योगदान: राष्ट्रपति रहते हुए भी नहीं छोड़ा पद

बिहार विद्यापीठ के प्रति उनका प्यार अद्वितीय था। राष्ट्रपति रहते हुए उन्होंने इस संस्थान की ज़मीन खरीदने के लिए ₹2 लाख से अधिक का योगदान दिया। इसके अलावा, उन्होंने विद्यापीठ का अध्यक्ष पद नहीं छोड़ा और अपने जीवन के अंतिम दिनों तक यहां का हिस्सा बने रहे। राजेंद्र बाबू का योगदान बिहार विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण था और उनकी कार्यशैली आज भी वहां के लोगों को प्रेरित करती है।

धार्मिक प्रवृत्ति और पूजा पाठ: एक साधारण जीवन के प्रतीक

राजेंद्र बाबू अपनी धार्मिक प्रवृत्तियों के लिए भी प्रसिद्ध थे। उन्होंने हमेशा विधिपूर्वक पूजा-पाठ किया और उनके पूजा घर में भगवान शिव, राधा-कृष्ण और मां काली की तस्वीरें होती थीं। उनका जीवन साधना और कर्मों से भरा हुआ था और उन्होंने हमेशा अपने कर्तव्यों को सर्वोपरि रखा। उनका धार्मिक विश्वास उनके सरल और सच्चे व्यक्तित्व को दर्शाता था, जो हर किसी के लिए प्रेरणा का स्रोत है। राजेंद्र बाबू की पुण्यतिथि पर हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनके जीवन से मिलने वाली शिक्षा को अपने जीवन में उतारने की प्रेरणा लेते हैं।

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