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भारत में आदिवासियों के मुकम्मल इतिहास पर बात होनी चाहिए : रणेंद्र

एलबीएसएम कॉलेज में "आदिवासी इतिहास और साहित्य" विशेष व्याख्यान आयोजित

by Anand Mishra
lbsm ranendra
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जमशेदपुर : “भारत का जो इतिहास है वह ब्रिटिश काल में एक यूरोपियन रूमानियत के तहत आर्य इतिहास बन कर रह गया। ईसा के पंद्रह सौ साल पहले ऋग्वैदिककालीन भारत और उसके बाद उत्तर वैदिककालीन भारत की बात होती है। जबकि आर्य रूट्स के लोग 1872 की जनगणना में मात्र 10 प्रतिशत थे, ईसा के पंद्रह सौ साल पहले तो एक प्रतिशत भी नहीं होंगे। तो उनका इतिहास पूरे भारत का इतिहास कैसे हो सकता है यानी उनके अलावा इस देश के जो लोग हैं, वो द्रविड़ हो या मुंडारी और आग्नेय भाषा बोलने वाले लोग हों या साइनो तिब्बतन यानी हिमालय क्षेत्र और उत्तर पूर्व की भाषाओं को बोलने वालों के साहित्य और इतिहास को भारत के साहित्य और इतिहास में क्यों दाखिल नहीं होने दिया जा रहा है? हम संगमकालीन भारत या मुंडारी कालीन भारत की बात क्यों नहीं करते? ” आज सुप्रसिद्ध कथाकार रणेंद्र ने एलबीएस एम कालेज में ‘आदिवासी इतिहास और साहित्य ‘ पर आयोजित विशेष व्याख्यान में ये बातें कहीं।

उन्होंने कहा कि आदिवासी इतिहास पर मुख्य रूप से कुछ राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने और ज्यादातर सबाल्टर्न इतिहासकारों ने काम किया है। लेकिन प्रायः हुल या उलगुलान को ही रेखांकित किया गया है, जो अब तक मुख्य रूप से अंग्रेजी और हिन्दी में उपलब्ध है। कुमार सुरेश ने बिरसा मुंडा पर, जेसी झा ने भूमिज विद्रोह और पुरुषोतम कुमार ने कोल रिवोल्ट पर लिखा।

आधुनिक भारत के इतिहास में आदिवासी इसी तरह आते हैं। यह ठीक है डी पी चट्टोपाध्याय, कोसांबी, रामशरण शर्मा ने आदिवासी गणराज्यों की बात की है। लेकिन कैसे मौर्य साम्राज्य के उदय ने उनको नष्ट किया और उनको जंगलों में बसने के लिए मजबूर किया, उस पर बहुत काम दिखता नहीं है। उन्होंने कहा कि भारत में आदिवासियों के मुकम्मल इतिहास पर बात होनी चाहिए। कुमार सुरेश सिंह की बिरसा मुंडा पर शोधपरक पुस्तक की चर्चा करते हुए कहा कि इस खोये हुए इतिहास पुरुष को महाश्वेता देवी ने ‘जंगल के दावेदार’ उपन्यास के जरिए जन-जन के हृदय तक पहुंचाया। जिस प्रकार तथाकथित मुख्य धारा में वैदिक पौराणिक मिथकों को लेकर ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की जो परंपरा है उसी तर्ज पर आदिवासी उपन्यास लिखने होंगे।

इससे पूर्व विषय प्रवेश कराते हुए साहित्य अकादमी, के पूर्व संयोजक में डी. अशोक कुमार झा अविचल आदिवासियों नार्थ ईस्ट जोन का इतिहास और साहित्य बहुत समूह है। पुराणों और लोककथाओं और गीतों में मौजूद इतिहास को खोजकर निकालना होगा।

अध्यक्षता करते हुए प्राचार्य प्रो. डॉ. बी. एन. प्रसाद ने कहा फि जिसे इतिहास को छिपा दिया गया है, उसे सामने लाना लेखकों का कर्तव्य है। वर्चस्वशाली इतिहास और संस्कृति को चुनौती देना होगा। संवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना होगा। दीप प्रज्जवलन से आयोजन की शुरुआत हुई। स्वागत हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो. पुरुषोत्तम प्रसाद ने किया। संचालन हिंदी विभाग के डॉ. सुधीर कुमार ने किया। धन्यवाद ज्ञापन संताली के विभागाध्यक्ष प्रो. बाबूराम सोरेन ने किया।

इस दौरान साहित्यकार भोगला सोरेन, प्रो. डॉ. विनय कुमार गुप्ता, प्रो. लक्ष्मण प्रसाद, डीएस आनंद, संजीव मुर्मू व अन्य ने व्याख्यानकर्ता से प्रश्न पूछे। कार्यक्रम में एनसीसी के कैडेट्स और लिटिल इप्टा के कलाकारों ने नृत्य और गीत प्रस्तुत किये। आयोजन में प्रसिद्ध शायर प्रो. अहमद बद्र, प्रो. लक्ष्मण चंद्र, डॉ. मौसमी पाल, डॉ. राजीव रंजन राकेश, श्याम जी, प्रो. विनोद कुमार, जनार्दन प्र० गोस्वामी, डॉ. दीपंजय, डॉ. विजय प्रकाश, प्रो. संतोष राम, संस्कृतिकर्मी अर्पिता, प्रो. रितु, डॉ. संतोष कुमार, डॉ. रानी, डॉ. प्रमिला किस्कू, डॉ. शबनम परवीन, प्रो. शिप्रा बोयपाई, लुसी रानी मिश्रा, अनिमेष बक्शी, प्रीति कुमारी, डॉ. प्रशांत, डॉ. जया कच्छप, डॉ सुष्मिता धारा, पूजा गुप्ता एवं अन्य उपस्थित थे।

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