डा जंग बहादुर पाण्डेय
पूर्व अध्यक्ष, हिंदी विभाग,
रांची विश्वविद्यालय, रांची
चलभाष:-8797687656
9431595318
द्रुतडाक:-pandey_ru05@yahoo.co.in
तू कालोदधि का महास्तंभ,
आत्मा के नभ का तुंग केतु।
बापू!तू मर्त्य -अमर्त्य,
स्वर्ग -पृथ्वी,भू-नभ का महासेतु।
तेरा विराट यह रूप कल्पना,
पट पर नहीं समाता है।
जितना कुछ कहूं,मगर कहने,
को शेष बहुत रह जाता है।
आज जब सिद्धांतों और वादों की प्रासंगिकता क्षीण होती जा रही है और विश्व मानस सिद्धांत वाद की जकड़न से मुक्ति का प्रयास कर रहा है,हमें गांधी जी का पुराना ऐतिहासिक कथन याद आता है;जब उन्होंने गांधी सेवा संघ के सम्मेलन में कहा था कि “गांधीवाद नाम की कोई चीज नहीं है और मैं अपने पीछे कोई संप्रदाय छोड़ना नहीं चाहता हूं।” यह कहकर अपने नाम पर बनी संस्था को भंग करने की सलाह दी थी।इसका सीधा अर्थ है कि गांधी जी सिद्धांतों के बंधनों से मानवता को मुक्त करना चाहते थे।
विचार जब किसी व्यक्ति की मर्यादा में कैद हो जाता है,तो वह वाद बन जाता है। विचार जब किसी धार्मिक आग्रह पर सवार होता है,तो वह संप्रदाय बन जाता है। विचार जनसत्ता और संपत्ति का दास बन जाता है,तो निस्तेज और नर्बीरी बन जाता है।असल में बापू किसी भी वाद या संप्रदाय से खुद को बांधना नहीं चाहते थे। विचार तो व्योम व्यापी हैं,जिसका केंद्र सत्य है। इसीलिए बापू ना तो गुरु निष्ठ थे ना ग्रंथ निष्ठ।उनकी तो एक ही निष्ठा थी और वह थी सत्य निष्ठा-इसीलिए उन्होंने आजीवन सत्य के साथ प्रवचन का कर्मकांड नहीं किया, बल्कि जीवन भर सत्य के साथ प्रयोग किया।
सत्य ना तो प्राची के हाथ बिका है ना प्रतीची के साथ।सत्य पर न तो सुकरात का अधिकार है न शंकराचार्य का सर्वाधिकार।यह वह विज्ञान है जिसका अनुष्ठान सत्य और केवल सत्य है।
दुनिया को मानवता के इतिहास में सत्य को समझाने के लिए धर्म का आविर्भाव हुआ।सभी धर्मों ने अपने को सर्वश्रेष्ठ और सबसे प्राचीन घोषित किया, इसीलिए जो धर्म हमें शांति और सद्भाव पढ़ाने आया था,वह भी धर्म के नाम पर रक्त रंजित हो गया। इतिहास साक्षी है कि धर्म के नाम पर पिछले पांच हजार वर्षों में लगभग साढ़े सात हजार छोटे बड़े युद्ध हुए हैं।अंध विश्वास और रूढ़ियों के कारण मानवता को अनेकानेक संत्रास और कष्ट हुए। इसीलिए गांधी जी ने भी सिद्धान्तवाद से उठकर सर्वधर्म समभाव को अपना जीवन धर्म माना। विवेकानंद ने भी सांप्रदायिक धर्म के बदले विश्व धर्म की अवधारणा रखी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी संस्थागत धर्म के बदले मानव धर्म का उद्घोष किया:-सवार ऊपरे मानुष सत्य तहार उपर कोई नाई। महाभारत में व्यास ने कहा कि ‘नहि श्रेष्ठतम किंचित मानुषसात्।(Man is the measure of all thing.) इसी प्रकार राष्ट्रवाद का सिद्धांत भी एक दिव्य सिद्धांत के रूप में हमने पाया:-जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
सर मोहम्मद इकबाल ने भी गाया :-
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलिस्तां हमारा।
हर देश में राष्ट्रीयता का वंदे मातरम् और जय देश धार्मिक शंखनाद के समान पवित्र बन गया, लेकिन इतिहास साक्षी है कि हमने राष्ट्र वाद के नाम पर त्रेता और द्वापर से आज तक लगभग 7 हजार छोटे-बड़े मानव संहार के युद्ध किये। इसीलिए विश्व विजय की भावना से जुलियस सीजर ने और महान सिकंदर तक ने विभिन्न देशों पर आक्रमण किये और खून की नदी बहाई। वर्चस्व की स्थापना के लिए अब तक दुनिया ने दो विश्व युद्ध (1914 से1918 तक प्रथम विश्व युद्ध और 1939 से 1945 तक द्वितीय विश्व युद्ध) देखे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम से भीषण नर संहार हुआ,जिसकी क्षतिपूर्ति आज तक नहीं हो सकी है। इसीलिए महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय संग्राम में भाग लेने के पूर्व दक्षिण अफ्रीका में जाकर नस्ल विरोध का विगुल बजाया था और भारत में जब एशियाई सम्मेलन में गांधी जी से पूछा गया था तो उन्होंने स्पष्ट कहा था कि “विश्व सरकार से कम हमारा अभीष्ट नहीं है और उसके बिना मैं जीना भी नहीं चाहता। इसीलिए भारतीय स्वतंत्रता के साथ साथ एशिया और अफ्रीका के देशों को भी परतंत्रता से मुक्ति मिली। लेकिन विश्व सरकार की दिशा में हम अभी तक गांधी के सपनों की ओर अधिक नहीं बढ़ सके हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ की तरह हमारा सार्क भी निष्प्राण है।
काश ! यदि बापू जीवित रहते तो राहुल सांकृत्यायन की ’22 वीं सदी’ विन्डल विलकी की ‘एक विश्व ‘की कल्पना को साकार करने की चेष्टा करते, क्योंकि राष्ट्रवाद का गतितत्व समाप्त हो गया।पिछले 5 हजार वर्षों में मानव मानव के ही द्वारा अनेक प्रकार से शोषणों का शिकार होता रहा है, जिसमें आर्थिक शोषण और विषमता सबों की जड़ में है।कार्ल मार्क्स ने सभ्यता के इतिहास को शायद इसीलिए शोषण का इतिहास बताया और पूंजीवाद के विरोध में उन्होंने सर्वहारा को संगठित कर वर्ग संघर्ष और युद्ध की अनिवार्यता का सिद्धांत प्रतिपादित किया, लेकिन नियति का यह व्यंग्य है। इसीलिए साम्यवादी राष्ट्र इसी आणविक युग में युद्ध की अनिवार्यता के बदले सह अस्तित्व को स्वीकार कर चुके हैं और वर्ग संघर्ष भी शायद अहिंसक सत्याग्रह का रूप ले रहा है। जहां महात्मा गांधी से लेकर डा मार्टिन लूथर किंग और लेह वैलेसा का पुरुषार्थ प्रकट हो रहा है।
शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में हमें पुरानी रूढ़ियों का त्याग करना पड़ेगा। पितृसत्तात्मक समाज ने पिछले 5 हजार वर्षों तक अपना वर्चस्व प्रदर्शित किया है और मानव सभ्यता लहू लुहान हो चुकी है।मानवता का प्रथम शोषण पुरुषों के द्वारा नारी समाज पर ही प्रारंभ हुआ,जो आज तक हो रहा है और नर नारी की विषमता के स्वरूप में यह मूल है। पुरुष के पुरुषार्थ का प्रयोग हम देख चुके हैं। इसलिए स्त्री शक्ति के हाथों में सभ्यता का शिशु सौंपना होगा। मातृशक्ति केवल ममतामयी नहीं है , बल्कि हिंसा विरोधी और त्यागमयी है। महात्मा गांधी ने अपने अहिंसक सत्याग्रह में स्त्री शक्ति को अपनी प्रथम पंक्ति में प्रथम स्थान पर रखा है। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी ने महिलाओं को 33%आरक्षण देकर गांधी जी के सपने को साकार किया है।
आज जो उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG) के नाम से जो स्वर्ण मृग मारीच हमारे सामने आया है,उसका असली रूप हमें समझना होगा।जो उदारीकरण और भूमंडलीकरण शोषण और विषमता पर आधारित है,उसे छद्म रूप में समझना चाहिए और निजीकरण का समावेश वस्तुत: ‘नव साम्राज्य वाद’ की काली छाया है-जिस प्रकार शोषण पर आधारित एक ग्रहित विचार है,उसी प्रकार सर्वहारा अधिनायक वाद के नाम पर चल रहे पूंजीवाद के रीति-नीति को अपनाने वाला साम्यवाद भी कलंकित हो चुका है।
जैसे जैसे भौतिकता का विकास हो रहा है ,वैसे वैसे महात्मा गांधी की प्रासंगिकता बढ़ रही है। गांधी का सत्य और अहिंसा का सिद्धांत आज भारत के लिए ही नहीं संपूर्ण विश्व के लिए अनिवार्य हो गया है,जबकि दुनिया तीसरे विश्व युद्ध के मुहाने पर बैठी है। गांधी जी ने वसुधैव कुटुम्बम् का सिद्धांत दिया था और वे बराबर कहा करते थे कि :-
अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदार चरितानामतु वसुधैव कुटुम्बम्।
महात्मा गांधी ने अपने जीवन और आश्रम में व्रतों के पालन पर जोर दिया,इसके लिए एकादश व्रत को दैनिक प्रार्थना का अंग बनाया:- अहिंसा,सत्य,अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह,शरीर श्रम, अस्वाद, सर्वत्र भय वर्जन,सर्व धर्म सम भाव, स्वदेशी,और स्पर्श भावना।आज विश्व को गांधी जी के इन एकादश व्रतों की महती आवश्यकता है। गांधी जी का सत्य और अहिंसा का सिद्धांत इतना लोकप्रिय और कारगर हुआ कि गांधी जी ने भारत की आजादी बिना खड़ग बिना ढाल ले ली। आधुनिक युग के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि आने वाली नस्लें मुश्किल से विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस का ऐसा पुतला इस धरती पर आया था और चला था।
इसीलिए आज हमें समता के साथ स्वतंत्रता, व्यक्तिगत कल्याण के साथ सामाजिक कल्याण और विज्ञान के साथ अध्यात्म का समन्वय युग की अनिवार्यता है और यही महात्मा गांधी की प्रासंगिकता भी। राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में मैं कहना चाहूंगा कि:-
बापू ने राह बना डाली,
चलना चाहे संसार चले।
डगमग होते हों पांव अगर,
तो पकड़ प्रेम का तार चले।
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