नई दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि बिना किसी वास्तविक आस्था के केवल आरक्षण का लाभ लेने के उद्देश्य से किया गया धर्म परिवर्तन “संविधान के साथ धोखाधड़ी” है। न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने 26 नवंबर को सी. सेल्वरानी की याचिका पर यह महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया। इस फैसले में मद्रास उच्च न्यायालय के उस आदेश को बरकरार रखा गया, जिसमें एक महिला को ईसाई धर्म अपनाने के बावजूद अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र देने से मना कर दिया गया था।
धर्म परिवर्तन का वास्तविक उद्देश्य जरूरी : न्यायमूर्ति महादेवन
न्यायमूर्ति महादेवन ने पीठ के लिए 21 पृष्ठों में विस्तार से निर्णय लिखा और स्पष्ट किया कि धर्म परिवर्तन का उद्देश्य केवल सामाजिक और आध्यात्मिक विचारों से प्रेरित होना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति का धर्म परिवर्तन सिर्फ आरक्षण का लाभ प्राप्त करने के लिए किया गया है, तो इसे अस्वीकार्य माना जाएगा। उनके अनुसार, ऐसी गलत मंशा रखने वाले लोगों को आरक्षण का लाभ देना, इस नीति के सामाजिक लोकाचार को नुकसान पहुंचाता है।
उन्होंने कहा, “अगर धर्म परिवर्तन का उद्देश्य केवल आरक्षण का लाभ लेना है, तो यह न केवल संविधान की भावना के खिलाफ है, बल्कि आरक्षण नीति के सामाजिक उद्देश्यों को भी कमजोर करता है।”
महिला का धर्म परिवर्तन और दोहरे दावे का मामला
इस मामले में सी. सेल्वरानी ने ईसाई धर्म अपनाया था और नियमित रूप से गिरजाघर जाकर उसका पालन भी करती थीं। बावजूद इसके, उन्होंने हिंदू होने का दावा किया और नौकरी के लिए अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र मांगा। कोर्ट ने इसे ‘दोहरा दावा’ करार दिया और कहा कि महिला अपने धर्म को बदलकर हिंदू होने का दावा नहीं कर सकती, क्योंकि वह ईसाई धर्म के प्रति आस्थावान हैं।
न्यायालय ने यह भी कहा कि महिला को अनुसूचित जाति का दर्जा देना संविधान और आरक्षण नीति के खिलाफ होगा, क्योंकि उन्होंने हिंदू धर्म अपनाने का कोई ठोस प्रमाण नहीं दिया था।
आरक्षण नीति के सामाजिक उद्देश्य पर प्रभाव
उच्चतम न्यायालय ने रेखांकित किया कि सिर्फ आरक्षण का लाभ पाने के लिए धर्म परिवर्तन करना न केवल अनुचित है, बल्कि यह आरक्षण के मूल उद्देश्य को भी कमजोर करता है। यह नीति हाशिए पर पड़े समुदायों के उत्थान के लिए बनाई गई थी, और यदि कोई व्यक्ति इसका गलत लाभ उठाता है, तो यह नीति की भावना के खिलाफ है।
सेल्वरानी का मामला और धर्म परिवर्तन
सेल्वरानी के पिता वल्लुवन जाति से थे, जो अनुसूचित जाति में शामिल है, और उन्होंने ईसाई धर्म अपनाया था। फिर भी, महिला ने हिंदू होने का दावा किया और 2015 में पुडुचेरी में उच्च श्रेणी लिपिक के पद के लिए अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र मांगा। कोर्ट ने कहा कि सेल्वरानी ने अपने धर्म परिवर्तन के बाद भी ईसाई धर्म का पालन किया, जो उनके हिंदू होने के दावे को अस्वीकार्य बनाता है।
इस फैसले के माध्यम से उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि धर्म परिवर्तन का उद्देश्य केवल आरक्षण का लाभ प्राप्त करना नहीं हो सकता। समाज में आरक्षण की व्यवस्था का उद्देश्य है समाज के कमजोर वर्गों का उत्थान करना, और यदि इसका गलत तरीके से फायदा उठाया जाता है तो यह संविधान और समाज दोनों के प्रति धोखाधड़ी के समान है।