यह मुहावरा आमतौर पर उन्हीं महानुभावों के लिए कहा जाता है, जो नासमझी या अतिउत्साह में गलत जगह पर छिटक कर चले जाते हैं। वास्तव में वह जगह उनके लिए बनी ही नहीं होती है, ऐसे में कुछ दिनों बाद जब पानी सिर से ऊपर बहने लगता है, घर-वापसी कर लेते हैं। ऐसे ही यह मुहावरा या लोकोक्ति एक माननीय रह चुके स्मार्ट नेताजी के साथ भी चरितार्थ हुआ है। उन्हें लगा था कि हर्रे-बहेड़ा में क्या रखा है, सीधे च्यवनप्राश ही क्यों न खाया जाए। उनके ख्वाब को धुरंधरों ने थोड़ी हवा दे दी और बेचारे छलांग लगाने आ गए। काफी दिनों तक पैंतरेबाजी सीखी, उठक-बैठक भी लगाई, लेकिन जब महापर्व का मौका आया तो उन्हें पता ही नहीं चला और जिस चादर पर बैठे थे, उसे पुराने वाले ने खींच ली। कुछ दिन तो सदमे में बिताए, फिर घर वापसी कर ली।
Read Also- शहरनामा : जाम बिना चैन कहां
उम्र का तकाजा है
यह बात अमूमन सेहत को लेकर कही जाती है, लेकिन यहां मामला थोड़ा अलग है। हाल ही में एक सरकारी भ्रष्टाचार या फर्जीवाड़ा का मामला सामने आया। जैसा कि कहा जाता है-माल है तो ताल है, सो यहां भी इसी फार्मूले में गोटी बिठाकर कुछ लोगों ने अपने बेटे-बेटियों की जन्मतिथि में हेरफेर करा लिया था। मजे की बात है कि जहां इन बच्चों का जन्मस्थान दिखाया गया, वहां उनके माता-पिता शायद ही हनीमून के लिए भी गए हों। जा भी नहीं सकते। खैर, इससे उन्हें क्या फर्क पड़ता है, बच्चों का जन्म तो बांस के जंगलों में हो गया। मनचाही तिथि पर डिलीवरी भी करा दी गई, लेकिन जब ये एडमिशन के लिए आए, तो हर कोई हैरान रह गया। बच्चे का जन्मस्थान देखकर हर कोई चौंक गया। मामला हाईकमान की नजर में गया, तो उन्होंने कच्चा चिट्ठा निकलवाया, आधा दर्जन लोग लालकोठी भेजे गए।
Read Also- शहरनामा : जंगल में कौन मना रहा मंगल
अस्पताल या रैनबसेरा
हाल ही में भ्रष्टाचार की एक इमारत भरभरा कर गिर गई थी। जिसने भी सुना, वह गिरते-पड़ते पहुंचा। अपने माननीयों ने भी देरी नहीं की, हर कोई भ्रष्टाचार के दोषी को कठोर से कठोर दंड देने की मांग करने लगा। सीएम तक के कान खड़े हो गए। शुरू में सबको लगा कि चार-चार मरीज बिना डॉक्टर के हाथ लगाए कैसे काल-कवलित हो गए। जब परत दर परत खुलने लगी तो पता चला कि जो स्वर्गवासी हुए हैं, वे यहां बरसों से रैनबसेरा समझ कर रह रहे थे। खैर, इसमें उनका कोई दोष नहीं है। यह तो अस्पताल प्रबंधन का काम था कि उन्हें उपयुक्त रैनबसेरा में शिफ्ट करा दिया जाता। उसके बाद इमारत गिर भी जाती, तो कोई उनकी गर्दन नहीं पकड़ता। बेचारे खामख्वाह प्रबंधन में बैठे लोगों को जनता का कोपभाजन बनना पड़ा। हादसा से ही उन्हें पता चला कि यह अस्पताल नहीं रैनबसेरा भी है।
Read Also- शहरनामा: तीसरी आंख नहीं, तीसरा आदमी
महामानवों की करें अनुभूति
अपनी लौहनगरी में महामानवों की जयंती व पुण्यतिथि मनाने का चलन अन्य शहरों से कुछ ज्यादा ही है। कई संस्था के लोग तो कैलेंडर बनाकर रखते हैं और दो-तीन दिन पहले से छपवाते रहते हैं कि अमुक दिन को अमुक महामानव याद किए जाएंगे। फिर बारी आती है कि हमने मना लिया। उस दिन की जो तस्वीर आती है, उसमें आप महामानव को ढूंढते रह जाएंगे। महामानव की प्रतिमा या मूर्ति बड़ी हुई, तो उसे इस तरह फूलों से ढंक दिया जाता है कि वे दिखेंगे ही नहीं। यदि कहीं फोटो रखी गई होगी, तो उस फोटो को भी फूलों से इस तरह आच्छादित कर दिया जाएगा या इतनी दूर रख दिया जाएगा कि वे दिखेंगे ही नहीं। दिखेंगे वही, जिन्हें अखबार या टीवी पर दिखने का शौक है। ऐसे में पाठक या दर्शक जयंती-पुण्यतिथि मनाने वालों को देखकर ही महामानव की अनुभूति कर लेता है।
Read Also- Jharkhand shaharanaama : शहरनामा : पाठशाला बनी अखाड़ा