कोलकाता : दुर्गा पूजा का पर्व विशेषकर पश्चिम बंगाल में, न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक महोत्सव भी है। इस दौरान मां दुर्गा के पंडाल सजाए जाते हैं और उनकी पूजा विधिपूर्वक की जाती है। लेकिन इस उत्सव की खास बात है-सिंदूर खेला विजयादशमी जो दुर्गा पूजा के अंतिम दिन मनाया जाता है। आइए जानते हैं इस रंगीन परंपरा की उत्पत्ति और महत्व।
सिंदूर खेला का इतिहास
सिंदूर खेला की शुरुआत लगभग 450 वर्ष पहले हुई थी। मान्यता है कि शारदीय नवरात्र के दौरान मां दुर्गा अपने मायके आती हैं, और इस दौरान दुर्गा पूजा का आयोजन होता है। अंतिम दिन, जिसे विजयादशमी कहते हैं, मां दुर्गा की विदाई होती है और इस अवसर पर सिंदूर खेला का उत्सव मनाया जाता है। इसे सिंदूर उत्सव के नाम से भी जाना जाता है और यह खासतौर पर विवाहित महिलाओं के लिए एक महत्वपूर्ण रस्म है।
पारंपरिक पोशाक और उत्सव का आनंद
दुर्गा पूजा के इस खास मौके पर बंगाल की शादीशुदा महिलाएं पारंपरिक सफेद और लाल बॉर्डर वाली साड़ी पहनती हैं। पहले वे देवी दुर्गा को सिंदूर अर्पित करती हैं, फिर एक-दूसरे पर सिंदूर फेंककर खुशी का इजहार करती हैं। यह एक तरह की रस्म होली होती है,जिसमें महिलाएं एक-दूसरे को सिंदूर लगाकर मां दुर्गा से सुख-शांति की कामना करती हैं।
बंगाल की गलियों में घरों के बाहर विभिन्न प्रतीकों के साथ सिंदूर से सजावट की जाती है, जिससे हर जगह उत्सव का माहौल छा जाता है। यह रस्म केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि बंगाली संस्कृति की एक अमूल्य विरासत है, जो हर साल धूमधाम से मनाई जाती है।
उत्सव का महत्व
सिंदूर खेला न केवल आनंद और उल्लास का प्रतीक है, बल्कि यह विवाहित महिलाओं के आपसी प्रेम और सामंजस्य को भी दर्शाता है। यह परंपरा दर्शाती है कि कैसे संस्कृति और धर्म का समावेश जीवन के हर पहलू में होता है।
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