दिल्लीः बिहार की स्वर कोकिला शारदा सिन्हा का 5 नवंबर की रात निधन हो गया। बीते 6 सालों से वो ‘मल्टीपल मायलोमा’ नाम की बीमारी से जूझ रही थीं और करीब 15 दिनों से दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती थीं। बीते माह उन्हें एम्स के कैंसर संस्थान, इंस्टीट्यूट रोटरी कैंसर हॉस्पिटल के आईसीयू में भर्ती किया गया था।
क्या होता है ‘मल्टीपल मायलोमा’
एम्स की ओऱ से जारी किए गए बयान में बताया गया कि सेप्टीसिमिया के कारण रिफ्रैक्टीर शॉक लगने से रात 9.20 बजे उनका निधन हो गया है। खबरों के अनुसार, उन्हें ‘मल्टीपल मायलोमा’ की बीमारी थी। यह ब्लड कैंसर का एक प्रकार है। इस बीमारी में व्हाइट ब्लड सेल बुरी तरह से प्रभावित होता है। मल्टीपल मायलोमा बोन मैरो के भीतर प्लाज्मा सेल में होने वाला कैंसर है। एक्सपर्टस के अनुसार, बढ़ती उम्र के साथ इस बीमारी की जटिलताए बढ़ती जाती हैं।
क्या है इसके लक्षण
इस बीमारी में 60 प्रतिशत रोगियों को हड्डियों में बुरी तरह से दर्द होता है। इस बीमारी के शुरूआत में वजन कम होना, थकान ज्यादा होना, रीढ़ व छाती में दर्द होना, खून की कमी और भूख न लगना जैसे लक्षण दिखाई देते हैं। इस बीमारी से जूझ रहे रोगियों को मानसिक भ्रम जैसी स्थिति भी होती है। इसमें किडनी पर भी बुरी तरह से प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा इम्युनिटी के वीक होने की वजह से बार-बार इंफेक्शन औऱ प्लेटलेट काउंट कम होना भी इसके लक्षणों में शामिल है।
मल्टीपल मायलोमा में हड्डियों को नुकसान होता है। कैंसर सेल प्लाज्मा सेल के बनने और नई हड्डियों के बनने के बीच असंतुलन बना देती है, जिससे हड्डियां कमजोर हो जाती हैं। इस दौरान हड्डियों के फ्रैक्चर होने की भी संभावना रहती है। इस बीमारी में दर्द किसी भी हिस्से में हो सकता है। लेकिन सबसे अधिक दर्द रीढ़ की हड्डियों, पसलियों और कूल्हों में होता है। केवल सोते समय दर्द का एहसास कम होता है।
डॉक्टर से उचित परामर्श अनिवार्य
विशेषज्ञों का कहना है कि वयस्कों में होने वाला हर पीठ दर्द स्लीप डिस्क या गठिया नहीं होता। मायलोमा लगातार खराब होती पीठ दर्द का कारण बनती है। आमतौर पर इसे मोच समझकर इसका इलाज कर दिया जाता है। इस बीमारी में मरीज को हड्डियों को मजबूत करने वाली दवा दी जाती है। इससे हड्डियों के फ्रैक्चर का खतरा भी कम होता है। इसके साथ ही रेडिएशन थेरेपी भी की जाती है। कई मामलों में कमजोर हड्डियों के लिए ऑपरेशन तक की नौबत आ जाती है।
इस बीमारी में मरीज के बचने की उम्मीद 40-50 फीसदी लोगों में 5 साल तक का होता है। जब कि 85 प्रतिशत लोगों में पाया गया है कि एक साल के भीतर ही उनकी मृत्यु हो जाती है। अगर सही समय पर बीमारी का पता चलता है, तो मरीज 10 साल तक भी दवा और अच्छी लाइफ स्टाइल के साथ जी सकता है।