बगुला एक ऐसा पक्षी है जो हमेशा हमारे आस-पास मौजूद रहता आया है। लेकिन आपको जान कर हैरत होगी कि बगुलों की कोई दर्जन भर प्रजातियाँ झारखंड में पायी जाती हैं, लेकिन हम उनमें से एकाध को ही जानते हैं। बल्कि अमूमन उसकी तीन प्रजातियों के लिए बगुले का ही प्रयोग करते हैं। पर वे एक ही नाम से पुकारे जाने के बावजूद अलग-अलग होते हैं।
खेतों, मैदानों और मवेशियों के आगे-पीछे सर्वाधिक दिखने वाले बगुले कैटल इग्रीट के नाम से जाने जाते हैं। लोग-बाग इसे गाय बगुला या मवेशी बगुला के नाम से भी जानते हैं। मवेशियों के साथ इनके घूमने की वजह यह होती है कि गाय-भैंस जब घास चर रहे होते हैं तो घास में रहनेवाले टिड्डे और कीट-पतंगे इधर-उधर उड़ते हैं, यह बगुले उन्हीं की ताक में रहते हैं।
इसलिए मवेशियों के साथ इनकी अच्छी संख्या साथ-साथ परेड करती देखी जा सकती है। इसी प्रजाति में लिटिल इग्रीट और ग्रेट इग्रीट आते हैं। कैटल इग्रीट की तुलना में लिटिल इग्रीट और ग्रेट इग्रीट जलाशयों के आस-पास पाये जाते हैं। कैटल इग्रीट की तुलना में लिटिल इग्रीट थोड़े चपल होते हैं और कई मर्तबा इनके सिर में एक शिखा जैसी चीज भी मौजूद देखी जा सकती है।
लिटिल इग्रीट अपने इलाके को लेकर खासे संवेदनशील होते हैं। पोखरों के आस-पास अपने इलाके में दखल बनाये रखने के लिए इन्हें लड़ते हुए देखा जा सकता है। इसे उनकी टेरिटेरियल फाईट के तौर पर जाना जाता है। बर्ड फोटोग्राफर्स के लिए लिटिल इग्रीट का टेरिटेरियल फाईट बेशकीमती होता है। कई बार इन क्षणों में उन्हें जीवन की सबसे सुन्दर तस्वीरें मिल जाती हैं।
लड़ाई के इन क्षणों में इन बगुलों की जो भंगिमा होती है। उसे देखने पर मालूम होता है कि गुस्सा और आक्रामकता कैसे उनके चेहरे पर भी महसूस किया जा सकता है! ग्रेट इग्रीट अपने आकार में इन दोनों से तकरीबन दोगुना और कभी-कभी ढाई गुना तक हो सकता है। झारखंड के जलाशयों में वे इक्के-दुक्के ही देखने को मिलते हैं। इनके पंखों का फैलाव बहुत ज्यादा होता है। बगुलों की खासियत होती है कि उड़ते वक्त यह अपनी लंबी गर्दन को सिकोड़ कर छोटा कर लेते हैं।
ग्रेट इग्रीट तो अपनी गर्दन को अंग्रेजी के एस अक्षर की तरह मोड़ लेता है। इससे इसकी लंबाई का उड़ते वक्त तो कतई अनुमान नहीं किया जा सकता है। प्रजनन काल में बगुलों के चोंच और पंखों के रंग में थोड़ा बदलाव देखने को मिलता है, जिसे प्लमेज के नाम से जाना जाता है। इग्रीट से थोड़ी अलग बगुलों की एक और प्रजाति होती है जो हेरोन के नाम से जानी जाती है।
यह भी जलाशयों में पाई जाती है इसमें प्रमुख है ग्रे हेरोन, पर्पल हेरोन और पोंड हेरोन, जिन्हें क्रमशः धूसर बगुला, बैंगनी बगुला और अंधा बगुला के नाम से जाना जाता है। पोंड हेराने को अंधा बगुला क्यों कहते हैं, इसकी ठीक-ठीक जानकारी मुझे नहीं है। पर यह तीनों पानी में मछलियों और जलीय जीवों का शिकार करते हुए देखे जा सकते हैं। तीनों सावधान की मुद्रा में लंबे समय तक एकाग्रचित रहने की क्षमता से सम्पन्न होते हैं।
अपनी उड़ान में एक मंथरता को वह धारण करते हैं। मानो कहीं जाने की इनको जल्दी नहीं होती है। छोटी या लंबी दूरी भी बहुत इत्मीनान से तय करते हैं। ग्रे हेरोन और पर्पल हेरोन आकार में ग्रेट इग्रीट की तरह ही बड़े होते हैं, पर अपने धूसर और बैंगनी रंगों के साथ अन्य रंगों की मौजूदगी इनको खासा आकर्षक बनाती है। इग्रीट और हेरोन के अलावे बगुले की एक और प्रजाति है जो बिटर्न के नाम से जानी जाती है।
झारखंड में इनमें से येलो बिटर्न, सिनामन बिटर्न और ब्लैक बिटर्न थोड़ी मशक्कत के साथ देखे जा सकते हैं। कश्मीर की ओर लिटल बिटर्न भी देखने को मिलता है। बिटर्न एक आम बगुले की तुलना में आकार में छोटे होते हैं। पोखर के किनारे सरकंडे जैसी वाली घास में यह रहते हैं। बगुलों की यह सबसे शर्मीली कौम है। आसानी से नहीं दिखते हैं, इन्हें देखने के लिए आपको जतन करना होगा।
पीला, काला और दालचीनी रंग के इन छोटे बगुलों को देखना अपने आप में एक अलग अनुभव होता है। पोखर में उग आने वाली सरकंडे नुमा घास की पतली पत्तियों पर यह किसी नट की तरह संतुलन साधे चलते दिख सकते हैं। येलो बिटर्न तो अपने पैरों को स्ट्रैच करने की विलक्षण क्षमता के कारण कई मर्तबा चौंकाता है। बिटर्न की प्रजाति छिपी रहती है। बिटर्न के हैबिटेट खत्म होते जा रहे हैं, इसलिए इनका दिखना भी कम होता जा रहा है।
बगुलों की जितनी प्रजातियाँ ऊपर बतायीं और गिनायीं गयीं हैं, यह सब दिन में सक्रिय रहती हैं। पर बगुले की एक और प्रजाति भी है जो शाम और रात में भी सक्रिय रहती है। इसे ब्लैक कैप्ड नाईट हेरोन के नाम से जाना जाता है। हिन्दी में इसे चन्द्रवाक और स्थानीय स्तर पर क्वाक के नाम से भी जानते हैं। घूसर, काला और सफेद रंग के इतर सिर पर शिखा इनको बगुलों की बिरादरी में सबसे अलग खड़ा करती है। यह साल भर दिखते भी नहीं हैं।
बगुला एक ऐसा पक्षी है जो कालिदास के मेघदूत जैसे ग्रंथ में भी बलाका समूहों के तौर पर उपस्थित हैं। तो दूसरी ओर बच्चों की कौतुक वाली दुनिया में भी ‘अगुला-बगुला दान दे, चिनिया बदाम दे’ की हूक के रुप में उपस्थित है। लोक व्यवहार में बगुले अलग रुप में मौजूद हैं। मछलियों के लिए डाले गये जाल में जब कोई बगुला फंस जाता है तो जानकार आदमी बगुले की चोंच पकड़कर उसे आजाद करने की कोशिश करता है, जानते हैं क्यों? ऐसा माना जाता है कि मनुष्य की आँखों को देख कर उसे किसी मछली का भ्रम होता है।
और वह आँखों पर अपनी चोंच से हमला करने से बाज नहीं आता। इसमें कितनी सचाई है मालूम नहीं पर दो मौकों पर बगुलों को चोंच से पकड़ बचाते लोगों ने इसकी यही वजह बताई। आपको जान कर हैरत हो सकती है पर बगुलों का भी शिकार होता है। झारखंड में कम से कम अब भी यह एक दर्जन के बगुले देखे जा सकते हैं पर यह कहना मुश्किल है कि भविष्य में भी यह इसी तरीके से देखे जा सकेंगे।
राहुल सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर, विश्व भारती, शांतिनिकेतन
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